लोग समझ रहे हैं कि चुनाव आयोग ने अखिलेश को साइकिल दी है। मैं यह समझ रहा हूं कि बाप ने बेटे को साइकिल समेत अपनी विरासत सौंप दी है। मुलायम सिंह जिस तरह से परिवार के ‘अनेकानेक’ महत्वाकांक्षी लोगों को साथ लेकर पार्टी चला रहे थे, उनके न रहने के बाद अखिलेश के लिए वैसा कर पाना संभव नहीं था।
परिवार के वे ‘अनेकानेक’ महत्वाकांक्षी लोग मुलायम सिंह के नीचे इसलिए सिर झुकाकर काम कर रहे थे, क्योंकि वे सभी मुलायम सिंह के बनाए हुए थे। लेकिन मुलायम सिंह के नीचे काम करते हुए भी उन सबने यह मुगालता पाल लिया था कि पार्टी को बनाने और बढ़ाने में उनका योगदान अखिलेश से ज़्यादा है, इसलिए उनका हक भी अखिलेश से ज़्यादा है।
मुलायम सिंह समझदार निकले। उन्होंने एक ही धोबीपाट में अपने परिवार के इन ‘अनेकानेक’ महत्वाकांक्षी लोगों को चित कर दिया। वे धृतराष्ट्र बनने से भी बच गए और बेटे को एकछत्र राज और पार्टी भी सौप दी। वे तो अपनी पत्नी, भाई, दोस्त सबसे यही कहेंगे कि “देखो, तुम लोगों के लिए मैंने बेटे को भी छोड़ दिया।” लेकिन आज अपनी चाल की कामयाबी पर मन ही मन मुस्का रहे होंगे- “मूर्खों… तुम लोगों को मैंने ही बनाया। मैंने ही मिटा दिया।”
मुलायम सिंह का क्या है? वे तो मार्गदर्शक मंडल में रहेंगे ही। पार्टी से बाहर हो गए वे लोग, जिन्हें उनके बेटे का नेतृ्त्व स्वीकार करने में परेशानी थी, जो उनके बेटे की राह में कांटे बिछाना चाहते थे, जो उनके बेटे से सत्ता झपटना चाहते थे। मुलायम सिंह के समधी लालू यादव जी ने तो पहले ही कह दिया था कि विरासत पर हक तो बेटे-बेटी का ही होता है। जो इतनी छोटी-सी बात नहीं समझ पाए, अब बैठकर छाती पीटें वे।
अपने ही अंदाज़ में मुलायम ने न सिर्फ़ बेटे को अपनी साइकिल सौंप दी है, बल्कि उसका रास्ता भी निष्कंटक कर दिया है। अब अखिलेश एक साफ़-सुथरे नेता हैं। विकास-पुरुष हैं। समाजवादी सरकार से जो ग़लतियां हुईं, उनकी ज़िम्मेदारियों से अब वे मुक्त हो गए। उन ग़लतियों का ठीकरा अन्य लोगों के सिर पर फोड़ दिया गया है। वे खलनायक बाहर हो गए हैं और यह नायक अब नए विश्वास, नई ताकत और नए वोट बैंक के साथ चुनाव में जाएगा।
मुलायम के इस मास्टर-स्ट्रोक और अखिलेश के इस मेक-अोवर से सबसे ज़्यादा मुश्किल होने वाली है बीजेपी के लिए, जो यूपी फ़तह करने का सपना देख रही है। यद्यपि बदली हुई परिस्थितियों का सामना करने के लिए बीजेपी के आला नेता भी कुछ न कुछ योजना ज़रूर बना रहे होंगे, लेकिन मेरा ख्याल है कि एक बड़ी ग़लती वह कर चुके हैं- अखिलेश के मुक़ाबले कोई चेहरा तैयार न करके।
हर राज्य की राजनीतिक परिस्थितियां अलग होती हैं। यूपी और बिहार वैसे भी अन्य राज्यों से अलग है। इन राज्यों के ताले आप महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड की चाभी से नहीं खोल सकते। दूसरी बात कि इन राज्यो में जनता के सामने पहले से ऐसे भरोसेमंद चेहरे हैं, जिन्हें बस समीकरणों का सहारा चाहिए। बिहार में नीतीश कुमार थे। यूपी में अखिलेश यादव हैं। जब आप इस किस्म के नेताओं के सामने मैदान खाली छोड़ देते हैं, तो उसका नुकसान निश्चित रूप से उठाना पड़ता है।
अब चुनाव की तारीखों का एलान हो चुका है, इसलिए बीजेपी दिल्ली जैसी ग़लती करने की स्थिति में भी नहीं है, जहां उसने चुनाव से 20 दिन पहले हर्षवर्द्धन जैसे अच्छे नेता को ध्वस्त करके किरण वेदी को खड़ा कर दिया था और अपना सर्वस्व गंवा दिया था। लेकिन कम से कम इतना तो वह अब भी कर सकती है कि गोवा की तरह संकेत दे कि केंद्र से भी कोई नेता यूपी का मुख्यमंत्री बन सकता है और इसके तहत राजनाथ सिंह का नाम प्रोजेक्ट करे।
राजनाथ सिंह यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार उन्होंने ही बनाया। इन दिनों केंद्र में गृह मंत्री हैं। नक्सलवाद और माओवाद पर लगाम लगाने में काफी हद तक सफल रहे हैं। जब वे यूपी के मुख्यमंत्री थे, तब से अब तक उनके अनुभवों का खजाना काफी समृद्ध हो चुका है और राष्ट्रीय फलक पर निश्चित तौर पर वे अखिलेश और मायावती से बेहतर नेता के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।
बहरहाल, बीजेपी क्या करेगी, यह उसे तय करना है, लेकिन मुलायम ने न सिर्फ़ अखिलेश को झाड़-पोंछकर चमका दिया है, बल्कि समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरएलडी के गठबंधन की स्क्रिप्ट भी तैयार कर दी है। इसमें जेडीयू और आरजेडी जैसी बिहारी पार्टियां भी बिहार से सटे इलाकों में असर डालने के लिए शामिल की जा सकती हैं। यह गठबंधन बीजेपी के लिए घातक हो सकता है। ठीक बिहार की तरह, जहां जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस ने मिलकर मोदी लहर पर कहर बरपा दिया था।
मेरी व्यक्तिगत राय में, नोटबंदी अगर सफल हुई होती, तो बीजेपी के सामने कोई गठबंधन नहीं टिकता। लेकिन इसकी विफलता या अल्प सफलता के बाद बीजेपी को इसका कोई बहुत बड़ा फायदा होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। अपना मुख्यमंत्री चुनते समय लोग मोदी के नाम पर वोट डालेंगे, इसकी संभावना भी कम ही है। मुस्लिम-यादव-जाट समीकरण प्रभावशाली प्रतीत हो रहा है। सत्ता की रेस में आगे दीखने पर अन्य वोट भी इसमें जुड़ सकते हैं।
जहां तक मायावती का सवाल है, वह इस चुनाव में तीसरे नंबर की लड़ाई लड़ रही हैं। जातियों और संप्रदायों को ललचाने की उनकी कोशिश कामयाब होती नहीं दीख रही। मुस्लिम उन्हें वोट देंगे नहीं। अगर दलितों को भी लग गया कि बहन जी कमज़ोर हो गई हैं, तो अखिलेश को हराने के लिए उनका एक हिस्सा बीजेपी की तरफ़ जा सकता है। हां, ब्राह्मणों के वोट बीजेपी की तरफ़ न जाएं, इसके लिए उन्होंने जो जाल बुना है, उसमें वह इस रूप में कामयाब हो सकती हैं कि उनके वोट बीजेपी, बीएसपी और कांग्रेस तीनों में बुरी तरह बंटने वाले हैं।
कुल मिलाकर, मुलायम सिंह सिर्फ़ अखिलेश के ही “बाप” नहीं, बड़े-बड़े सियासी सूरमाओं के “बाप” साबित हुए हैं। लेकिन वोटिंग और चुनावी नतीजे आने से पहले इसे सिर्फ़ एक तात्कालिक और त्वरित विश्लेषण के तौर पर ही समझना उचित होगा। मैं कोई ज्योतिषी नहीं कि अभी से किसी की जीत-हार की भविष्यवाणी कर दूं। वैसे भी चुनावी ऊंट कब किस करवट बैठ जाए, यह तो ब्रह्मा भी नहीं जानते।