सवाल ये नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गंगा के समान पवित्र हैं या नहीं? सवाल तो ये भी नहीं कि नरेंद्र मोदी ईमानदारी के प्रतीक हैं या नहीं? और सवाल ये भी नहीं कि राहुल गांधी पर नेशनल हेराल्ड मामले में कथित तौर पर पांच हजार करोड़ रुपये के घपले का आरोप सही है या नहीं? सवाल ये है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर एक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के पुत्र और दशकों सत्ता में रहने वाली कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा लगाए गए कथित रिश्वत के आरोपों की जांच क्यों ना हो?
किसी व्यक्ति के विषय में हमारी आपकी निजी राय अलग-अलग हो सकती है, किंतु बात जब देश के प्रधानमंत्री की हो तो उनकी ईमानदारी को लेकर राय एक ही होनी चाहिए- या तो पूर्णत: पाक साफ, या फिर संदिग्ध। यहां बात किसी व्यक्ति विशेष या राजदलों की नैतिकता की मैं नहीं करूंगा, क्योंकि राजनीति के दलदल में नैतिकता को बिलखते, तड़पते देश प्रतिदिन देख रहा है। यहां दांव पर है सरकार की नैतिकता। उस लोकतांत्रिक सरकार की, जिसे देश की जनता ने विश्वास के साथ गठित किया है।देश के संविधान और कानून के दायरे में ईमानदारी पूर्वक कर्तव्य निष्पादन की जिम्मेदारी सरकार पर है। और, चूंकि प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है, उसे तो हर दृष्टि से, हर कोण से पाक साफ दिखना ही होगा।
यहां मैं पुन: दोहरा दूं कि लोकतांत्रिक भारत देश किसी की बपौती नहीं है। जनता एक सीमित अवधि के लिए प्रतिनिधि निर्वाचित कर उन्हें शासन की जिम्मेदारी सौंपती है। संविधान व कानून के अंतर्गत उनसे ईमानदारी पूर्वक सत्ता संचालन की अपेक्षा की जाती है। इतिहास साक्षी है, प्रतिकूल अवस्था में जनता उन्हें दंडित करने से नहीं हिचकती। ऐसे में जब, राहुल गांधी सीधे-सीधे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री, जो वर्तमान में प्रधानमंत्री हैं, पर रिश्वत लेने के आरोप लगाते हैं, तब यह स्वयं नरेंद्र मोदी का नैतिक दायित्व हो जाता है कि वह अपने ऊपर लगे आरोपों की जांच के आदेश दें। उन्हें स्वयं को पाक साफ प्रमाणित करना ही होगा। इस बिंदु पर व्यक्ति, राजदल और सरकार के बीच के अंतर को समझना होगा। व्यक्ति या राजदल अनैतिक हो सकते हैं, सरकार की अनैतिकता भारतीय लोकतंत्र स्वीकार नहीं करेगा। इसीलिए स्वयं सरकार अर्थात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पहल करनी होगी।
यह क्षोभकारी है कि प्रधानमंत्री मोदी के बचाव में पार्टी और कुछ मंत्री सामने आए। प्रधानमंत्री स्वयं मौन हैं। पार्टी या सरकार की ओर से यह कह देना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गंगा की तरह पवित्र और ईमानदारी के प्रतीक हैं, पर्याप्त नहीं होगा। बचाव के रूप में यह दलील कि आरोपकर्ता राहुल गांधी स्वयं पांच हजार करोड़ के एक घोटाले के आरोपी हैं, जमानत पर हैं, भी पर्याप्त नहीं होगा। बगैर जांच के आरोपों को बेबुनियाद बताना भी न्यायसंगत नहीं होगा। आरोपों का झूठ-सच तो किसी जांच के बाद ही सामने आ पाएगा। और जब, श्री मोदी गंगा की तरह पवित्र हैं तो फिर उन्हें तो ताल ठोंककर जांच के लिए स्वयं को आगे प्रस्तुत कर देना चाहिए।
यह वही भारत देश है, जो शीर्ष पर भ्रष्टाचार को कभी बर्दाश्त नहीं करता। चाहे तब की ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हों, या ‘मिस्टर क्लीन’ के छविधारक राजीवगांधी। आरोप लगे तब जनता ने उनकी सत्ता को उखाड़ फेंका। सत्तर के दशक के आरंभ में पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला इंदिरा गांधी के पतन की शुरुआत थी, तो इसके बाद1987 में बोफोर्स दलाली का मामला राजीव गांधी के सत्ताच्युत होने का कारण बना था। ध्यान रहे, दोनों मामलों में तब आरोप ही लगे थे। इंदिरा और राजीव दोनों ने विपरीत जनभावना की अनदेखी की। नतीजतन 1977 में इंदिरा और 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को पराजय का मुंह देखना पड़ा। यहां यह उल्लेख समचीनी होगा कि पराजय के पूर्व 1984 में इन्हीं राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को 400 से अधिक सीटें प्राप्त हुई थीं। मिस्टर क्लीन के रूप में उनकी छवि को तब महिमामंडित किया जाता था। लेकिन, उनके प्रधानमंत्रित्व में 64 करोड़ रुपये की कथित दलाली के आरोप को देश की जनता ने बर्दाश्त नहीं किया। उन्हें सत्ता से उखाड़ फेंका।
बोफोर्स घोटाले का दृष्टांत इसलिए दे रहा हूं कि तब पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री और महाराष्ट्र के राज्यपाल सी सुब्रमणियम ने 15 अगस्त 1989 को पत्र लिखकर भारत के राष्ट्रपति से कहा था कि ‘राष्ट्र को सत्य जानने का अधिकार है, यह निर्णायक तौर पर स्थापित हो चुका है कि बड़ी गड़बडिय़ां (बोफोर्स घोटाले में) हुई हैं। अब सिर्फ दोषियों की पहचान की जानी है। आप जिस पद पर हैं, उसकी महत्ता का ख्याल रखते हुए मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि इस बचे हुए कार्य को पूरा करने के लिए आप जो कुछ भी कर सकते हैं, कीजिए। भारत की जनता आपसे यही अपेक्षा करती है।’ नैतिक आधार पर महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा देने वाले सी सुब्रमणियम ने राष्ट्रपति को लिखे अपने गोपनीय पत्र में ये बातें कही थीं। वस्तुत: तब राष्ट्रपति की चिंता पूरे राष्ट्र की चिंता थी क्योंकि राष्ट्र उच्च पदों पर भ्रष्टाचार को स्वीकार नहीं कर सकता।
आलोच्य मामले में भी सभी तटस्थ एकमत हैं कि प्रधानमंत्री पर लगे आरोपों की सत्यता प्रकाश में आए। राहुल गांधी को पप्पू या नादान निरुपित कर मामले की गंभीरताको कम करना मामले पर पर्दा डालने समान होगा। खेद है कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने राहुल के आरोपों की खिल्ली उड़ा डाली है। प्रधानमंत्री की टिप्पणी कि राहुल अभी बोलना सीख रहे हैं, एक अत्यंत ही हल्की टिप्पणी मानी जाएगी। न्याय का तकाजा तो यह है कि अगर एक गूंगा भी इशारे में सत्ता शीर्ष पर आसीन व्यक्ति पर कोई आरोप लगाए, तब उसकी भी जांच होनी चाहिए। अगर प्रधानमंत्री मोदी पर लगे आरोपों की जांच नहीं होती, तब स्वयं नरेंद्र मोदी लोगों की नजरों में और देश के इतिहास में संदिग्ध बने रहेंगे।