अनुपम जी को 1980 से जानना भी उनको, उनके स्वभाव और काम को जानने के हिसाब से पर्याप्त नहीं लग रहा है- तब तक वे समाजवादी युवजन सभा, चौहत्तर के आन्दोलन, चम्बल के डाकुओँ के समर्पण और चिपको की अपने खास तरह की रिपोर्टिंग वाला दौर पूरा कर चुके थे. बल्कि यह कहेँ कि उनकी इसी पृष्ठभूमि और काम की वजह से उनसे रिश्ता बना क्योंकि हम भी यही करना चाह रहे थे. शुरुआती कुछ मुलाकातोँ मेँ उनकी विनम्रता ओढी हुई और नकली लगी पर बाद का अनुभव यही पुष्ट करता गया कि वे अविश्वसनीयता की हद तक विनम्र लेकिन अपनी बुनियादी बातोँ के प्रति एकदम दृढ थे. और यह धारणा सालोँ साल बढती गई, पुष्ट होती गई. जैसे उन्होने सब कुछ छोडकर पर्यावरण के प्रति अलख जगाने का काम किया, कभी पैसे-गाडी-मोबाइल-मकान जैसी सामान्य दुनियावी चीजोँ के चक्कर मेँ न पडे, कभी अंगरेजी मेँ छपने-अनुदित होने ही नहीँ दस्तखत करने का भी लोभ न पाला, कभी पुरुष होने या ब्राह्मण परिवार मेँ पैदा होने के ‘जन्मजात लाभ’ भी नहीँ लिये. और कभी इन बातोँ का शोर नहीँ मचाया, कभी नारेबाजी जैसी बात नहीँ की.पर अनुपम जी इसी सबसे बडे नहीँ बने-सचमुच हमारे देखते जानते उन्होने और उन जैसे चन्द लोगोँ ने देश मेँ पर्यावरण के सवाल को उठाया और जीवन-मरण का मुद्दा बना दिया. इस जमात मेँ भी अनुपम जी का खास महत्व इसलिये है कि उन्हे पर्यावरण सुरक्षा का पश्चिमी माडल और मानक कभी स्वीकार नहीँ हुआ. उनको देशी ज्ञान, कौशल और समाज की ताकत पर पूरा भरोसा था और वे अपने जैसे लोगोँ का काम सिर्फ समाज को उसके कामोँ की, उसकी शक्ति की, उसकी जरूरतोँ की याद दिलाना भर मानते थे. और यह कहना शायद गलती होगी कि उन्होने एक किताब ‘आज भी खरे हैँ तालाब’ के माध्यम से कोई क्रांति कर दी. उन्होने गान्धी शांति प्रतिष्ठान के लिए पर्यावरण पर बुलेटिन निकालने और नदियोँ पर पुस्तिकाएँ निकालने, देश का पर्यावरण और हमारा पर्यावरण नामक रिपोर्ट तैयार करने, राजस्थान की रजत बून्देँ, और अनगिनत लेख-भाषण त्तैयार करने तथा गान्धी मार्ग का सम्पादन करने ही नहीँ उसके लिफाफे बनाने, पते चिपकाने, टिकट लगाने जैसे सारे काम उसी गम्भीरता, आनन्द और लगन से किये.
निश्चित रूप से ‘आज भी खरे हैँ तालाब’ उनकी सबसे लोकप्रिय, प्रभावी, सफल और चर्चित रचना है. इसकी भाषा, इसके विषय और उसको निभाने का उनका तरीका हर पढने वाले को छूता है. तभी यह किताब रामायण न होकर भी कई लाख प्रतियोँ मेँ बिकी है- करीब पांच साल पहले जब कई भाषाओँ मेँ अनुदित इस किताब की दो लाख प्रतियाँ बिकने का रिकार्ड मालूम हुआ तो हमने भी ‘शुक्रवार’ मेँ एक लम्बा फीचर किया था. जब किताब एक लाख का आंकडा पार गई थी तब हिन्दुस्तान मेँ एक पूरा पेज प्रकाशित किया था. चूंकि किताब कापीराइट से मुक्त है इसलिये इसका कितना और संस्करण छपा यह बताना मुश्किल है-खुद अनुपम जी बहुत खुश होकर इसकी दसियोँ ऐसे संस्करण दिखाते थे जो बिना किसी सूचना के छपे थे. वे किताब के लोगोँ तक पहुंचने मात्र से प्रसन्न थे. वैसे उन्हे मालूम था कि नकली संस्करण छापने मेँ देश के कई नामी प्रकाशक भी शामिल हैँ. पर कभी उन्होने इसे मुद्दा नहीँ बनाया. उनको कोई रायल्टी नहीँ मिलती थी. पर देश का पर्यावरण और हमारा पर्यावरण के हमारे जैसे अनुवादकोँ को उन्होने किताब ज्यादा बिकने पर दो दो बार भुगतान कराया.
‘आज भी खरे हैँ तालाब’ सिर्फ लोकप्रिय होने और बिक्री का रिकार्ड बनाने भर से महान नहीँ है. इस किताब ने तालाबोँ को बचाने, पुनर्जीवित करने, नए तालाब बनाने, पारम्परिक जल संचय प्रणालियोँ पर एक बार फिर भरोसा बढाने और हम सबको अपने-अपने हिस्से का काम करने की प्रेरणा दी और काम कराया. इस लेखक जैसे व्यक्ति को भी मालूम है कि हजारॉ तालाबोँ का जीर्णोद्धार इस किताब को पढकर हुआ. इस किताब को पढकर देवघर के नामी तालाब का कीचड निकालने जैसे ही वहाँ के कलक्टर निकले वैसे ही शहर उमड पडा और आज यह दसियोँ साल से एकदम साफ-सुथरा है. सागर शहर जिस तालाब के नाम पर है वह ख्त्म हो रहा था. इस किताब को पढकर नामी गीतकार विठलभाई ने चन्दा मांग-मांग कर उसे काफी हद तक साफ करा दिया. सूरत, गुजरात के हीरा व्यापारियोँ को जब इस किताब ने एहसास कराया कि हीरा-जवाहरात नहीँ खाया-पीया जा सकता तो उन्होने सामूहिक ढंग से उत्सव जैसे आयोजन के सहारे सैकडोँ तालाबोँ को पुनर्जीवित कराया और अनुपम जी को बुलाकर दिखाया. उन्होने कहा कि ऐसा आयोजन और इतने स्वादिष्ट व्यंजन उन्होने पहले कभी नहीँ खाए थे. राजस्थान, मध्य प्रदेश ही नहीँ हर कहीँ ऐसा अनुभव रहा. सबसे पहले तो किताब पढने वाला इसे अपनी भाषा मेँ लाने और बांटने का काम करता था और फिर आसपास के तालाबोँ से शुरुआत.
काफी हद तक यही किताब भाई राजेन्द्र सिन्ह जैसे अनेक लोगों के लिए अपना जीवन पानी के सवाल पर समर्पित करने की प्रेरणा बनी. उत्तराखन्ड के कुछ नौजवानोँ ने इस किताब के माध्यम से एहसास किया कि उनके गांव का नाम खाल और ताल है इसका मतलब वहाँ पहले तालाब होगा. फिर अनुपम भाई से पूछकर और उनसे बहुत जानकारी न पाकर भी प्रेरणा लेकर जल संरक्षण का जो प्रयोग शुरु हुआ वह आज दुनिया भर मेँ चर्चित है. पानी बचाने, जंगल को हरा भरा करने के साथ जंगल की आग को स्थानीय पानी से नियंत्रित करने का यह माडल दुनिया भर के वनरक्षकोँ के लिए नकल करने की चीज बना हुआ है. अनुपम मानते थे कि वे कहीँ से खास कुछ लेकर नहीँ आए हैँ. इसी समाज का ज्ञान और कौशल पता करके उसे वापस याद दिला रहे हैँ और समाज अगर जगा तो फिर किसी बाहरी के लिए कोई काम नहीँ रहेगा, कोई धन्धा नहीम रहेगा. यह नदी के जल को उसे लौटाने की तरह समाज को उसका उधार लौटाने जैसा काम है. पर शायद प्रकृति ने प्रदूषण के एक रोग के माध्यम स एहमारे बीच से अपना एक रत्न वापस ले लिया है. पर यह रत्न भी ऐसा था कि इसने बार-बार अनुपम पैदा होने लायक रास्ता दिखा दिया है. यही अनुपम मिश्र थे और रहेंगे.