ममता बनर्जी उन्हें गद्दार कह रही हैं, जबकि वे किसी मोदी-विरोधी गठबंधन का औपचारिक हिस्सा नहीं हैं। कांग्रेस और आरजेडी पहले से ही इस गठबंधन का हिस्सा हैं, फिर भी नीतीश कुमार के रुख से उन्हें भौंचक्का होना पड़ा है। कांग्रेस को कहना पड़ा है कि एक गठबंधन से प्रधानमंत्री पद का एक ही उम्मीदवार हो सकता है, जबकि आरजेडी को नोटबंदी के विरोध में अपने सुर में नरमी लानी पड़ी है। आख़िर, नोटबंदी पर नीतीश कुमार के रुख से लालू यादव और कांग्रेस असहज महसूस कर रहे हैं या लालू और कांग्रेस की दोस्ती से नीतीश कुमार असहज महसूस कर रहे हैं? यह सवाल कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे कुछ साल पहले तक बिहार की सड़कों को लेकर एक सवाल पूछा जाता था कि सड़क में गड्ढे हैं या गड्ढे में सड़क है? सच्चाई यह है कि दोनों सच है।
दरअसल, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ नीतीश कुमार ने जबसे महा-गठबंधन बनाया है, तभी से लोग समझ रहे हैं कि यह एक बेमेल गठबंधन है और इसका मकसद अत्यंत ही संकीर्ण है। यह गठबंधन मूलतः इसलिए पैदा हुआ, क्योंकि नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ गठबंधन टूट गया। और वह गठबंधन टूटा इसलिए, क्योंकि नीतीश कुमार ने अति-महत्वाकांक्षा, अहंकार और संभवतः कुछ बड़े बीजेपी नेताओं के उकसावे पर नरेंद्र मोदी विरोध का न सिर्फ़ राजनीतिक दांव चला, बल्कि इसे अपनी आन-बान-शान से भी जोड़ लिया। लेकिन जब वह गठबंधन टूट गया, तो देश के राजनीतिक हालात तेज़ी से बदले। विपक्षी नेताओं और स्वयं नीतीश कुमार की उम्मीद के विपरीत नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से प्रधानमंत्री बने। इसके बाद, विधानसभा चुनाव से पहले, मोदी लहर में जब नीतीश, लालू और कांग्रेस- तीनों को अपनी नावें डूबती नज़र आईं, तो अपना-अपना अस्तित्व बचाने, सत्ता हासिल करने और बीजेपी को बिहार की सत्ता में आने से रोकने के तात्कालिक और संकीर्ण मकसद से यह महागठबंधन कायम किया गया।
मज़ेदार बात यह रही कि धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहनकर बनाए इस महागठबंधन से नीतीश जी का पूरा का पूरा धर्म ही भ्रष्ट हो गया। लालू जी के जिस जंगलराज को मुद्दा बनाकर वे पहली बार सत्ता में आए थे और सुशासन बाबू कहलाए थे, उन्हीं लालू यादव से गठजोड़ करना निश्चित रूप से उनके लिए कोई सुखदायी फैसला नहीं रहा होगा। इसी तरह, जिस कांग्रेस के ख़िलाफ़ इमरजेंसी और जेपी आंदोलन के समय से अब तक वे चट्टान की तरह खड़े रहे थे, उसी कांग्रेस से गलबहियां करके पल भर में अपनी पुरानी पहचान धूल-धूसरित कर ली।
बहरहाल, इस महागठबंधन से वे एक बार फिर से बिहार के मुख्यमंत्री तो बन गए, लेकिन देखिए कि इस बार वे कितने कमज़ोर, कितने बौने और कितने हल्के नज़र आ रहे थे।
- बीजेपी के साथ गठबंधन में वे दबंग मुख्यमंत्री थे। बीजेपी के तमाम वरिष्ठ नेता उनका आदर करते थे और उनकी बात सुनते थे। उन्होंने ठान लिया, तो नरेंद्र मोदी का बिहार आना भी रोक दिया, लेकिन बीजेपी नेताओं ने उनकी शान का मान रखा। लेकिन इस सरकार में उनपर लालू जी के हिसाब से चलने का भारी दबाव शुरू से ही है। शहाबुद्दीन जैसा आपराधिक नेता भी उन्हें आंख दिखाकर परिस्थितिजन्य मुख्यमंत्री करार देता है।
- बीजेपी के साथ गठबंधन में सुशील कुमार मोदी जैसा वरिष्ठ नेता उनका उपमुख्यमंत्री था। इस गठबंधन में लालू जी के 25 साल के बेटे को उन्हें अपना उपमुख्यमंत्री बनाना पड़ा। लालू जी के दूसरे बेटे को भी स्वास्थ्य विभाग जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय उन्हें देना पड़ा। ज़ाहिर तौर पर, नीतीश जी ने अगर अपनी छवि के बारे में ज़रा भी सोचा होगा, तो यह फैसला उनके लिए आसान नहीं रहा होगा।
- बीजेपी के साथ गठबंधन में वे सरकार के सीनियर पार्टनर थे और बीजेपी जूनियर पार्टनर थी। इस गठबंधन में वे जूनियर पार्टनर हैं और लालू यादव सीनियर पार्टनर हैं।
- बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार चलाते समय उनकी पहचान एक विकास-पुरुष के रूप में पुख्ता हुई, लेकिन इस गठबंधन में उनपर जंगलराज पार्ट-2 चलाने का आरोप है। पिछली बार अपराधियो को जेल में ठूंसने का अभियान चलाने के लिए उनका नाम हो रहा था, लेकिन इस बार उनकी बदनामी हो रही है, क्योंकि उनकी सरकार के ख़राब तरीके से केस लड़ने की वजह से कई कुख्यात अपराधियो को पटना हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई और बहुत किरकिरी होने के बाद उन्हें उनकी जमानत रद्द करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख करना पड़ा।
- बीजेपी से गठबंधन में तमाम पोस्टरों और विज्ञापनों पर उनकी बड़ी सी तस्वीर छपती थी और गठबंधन सहयोगी के सारे अच्छे कामों को श्रेय भी उन्हें ही मिलता था। लेकिन इस गठबंधन में अक्सर पोस्टरों और विज्ञापनों से उनकी तस्वीर नदारद हो जाती है। ऊपर से हर बुरे काम की फ़ज़ीहत भी गले आ पड़ती है।
- बीजेपी के साथ गठबंधन में रहते हुए उनका मनोबल इतना बढ़ गया था कि वे प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने लगे थे, लेकिन इस गठबंधन में उन्हें ऐसा महसूस हो रहा होगा कि प्रधानमंत्री बनना तो दूर, मुख्यमंत्री की कुर्सी भी ठीक से एन्जॉय नहीं कर पा रहे। ऊपर से इस छवि के साथ अगली बार चुनाव जीतने और मुख्यमंत्री बनने से तो रहे। इतना ही नहीं, लालू यादव कब तक तेजस्वी को उनसे नीचे रखना चाहेंगे, यह सवाल भी उन्हें चिंतित करता होगा।
ज़ाहिर है, ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनमें नीतीश कुमार अपना भूत-भविष्य सबका आकलन ज़रूर कर रहे होंगे। यूं भी वे एक चतुर अवसरवादी नेता माने जाते रहे हैं। बीच में उन्हें ज़रूर लग रहा होगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी-विरोधी मोर्चे का वे चेहरा हो सकते हैं। लेकिन अब उन्हें समझ आ रहा होगा कि बिहार में नेता मान लेना अलग बात है, केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस उन्हें अपना नेता कभी नहीं मानेगी। उधर, मुलायम के कुनबे के साथ उनकी यारी नहीं हो सकती। वैसे भी उस कुनबे के पास अखिलेश जैसा चेहरा तैयार हो चुका है। लालू के साथ एक साल फिर से रहकर उन्होंने देख लिया। अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी की दोस्ती भी उन्होंने देख ली और यह महसूस कर लिया कि ये सब क्षुद्र स्वार्थों में लिपटकर बहुत छोटी लड़ाई लड़ने में जुटे हैं। वामपंथियों की राजनीतिक ताकत बची नहीं है, इसलिए उनसे यारी करके भी कुछ नहीं मिलने वाला। यानी पिछले एक साल में निश्चित रूप से उनका यह भ्रम टूटा होगा कि मोदी के विरोध में सभी दलों को एकजुट किया जा सकता है और उस एकजुट विपक्ष के वे निर्विवाद नेता बन सकते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें यह भी समझ आ रहा होगा कि ढाई साल में मोदी की लोकप्रियता घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है और विपक्ष अपने ही कर्मों से अपनी मिट्टी पलीद करता जा रहा है।
इसलिए नीतीश कुमार निश्चित रूप इस बात का आकलन कर रहे होंगे कि उनका फायदा किस बात में है- लालू जी और कांग्रेस के साथ इस महागठबंधन में बने रहने में या इससे बाहर निकलकर वापस बीजेपी के साथ चले आने में। हालांकि, इतनी जल्दी वे कोई अंतिम फैसला कर लें, ऐसा तो नहीं लगता, लेकिन जब भी वे दुविधा में होते हैं, हमेशा बीच का रास्ता पकड़ लेते हैं। याद कीजिए, कि जब बीजेपी से उनके रिश्ते बिगड़ने लगे थे, तो बीच-बीच में तत्कालीन यूपीए सरकार और उसके नेताओं की तारीफ़ें कर दिया करते थे। उनकी इसी कवायद के चलते सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने उन्हें लालू यादव जैसे पुराने और विश्वसनीय सहयोगी की तुलना में अधिक तरजीह देना भी शुरू कर दिया था। इसी तरह, से अब जबकि कांग्रेस और लालू जी के साथ उन्हें अपना वर्तमान कष्टकर और भविष्य अंधकारमय दिखाई दे रहा है, तब बीजेपी के साथ संबंध सुधारने की कोशिशें भी उन्होंने शुरू कर दी हैं। अब कहने को वे महागठबंधन में भी हैं, लेकिन बीच-बीच में मुद्दों के आधार पर मोदी सरकार की तारीफ़ें भी करते रहेंगे, जैसे कि नोटबंदी मामले में किया है। संकट से उबरने के लिए इस बीच-बीच वाली दोहरी राजनीति को हथियार के तौर पर वे हमेशा से इस्तेमाल करते रहे हैं। इस बार भी कर रहे हैं।
महागठबंधन में बने रहते हुए मोदी सरकार की तारीफ़ करने से एक साथ उनके तीन मकसद पूरे होते हैं।
एक- लालू जी और कांग्रेस के मन में यह डर समाया रहेगा कि कहीं वे गठबंधन न तोड़ दें। इससे जो दबाव अभी नीतीश जी महसूस कर रहे हैं, उसे कुछ हद तक गठबंधन सहयोगियों की तरफ़ ट्रांसफर कर सकते हैं।
दो- देशहित के मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन करने से साफ-सुथरे नेता की उनकी छवि बनी रहेगी या अब तक उनकी छवि पर जो दाग लगे हैं, वे कुछ कम हो सकेंगे।
तीन- कि अगर महागठबंधन टूटने की स्थिति बनती है या फिर इसे तोड़ देने में ही उन्हें फायदा नज़र आए, तो बीजेपी उन्हें अपना सहारा देने के लिए तैयार रहे।
यह सबको पता है कि बिहार में आज भी अगर नीतीश कुमार (71) और बीजेपी (53) साथ आ जाएं, तो पूर्ण बहुमत (122) की सरकार बन सकती है। इतना ही नहीं, 124 विधायकों वाली यह सरकार नीतीश (71), लालू (80) और कांग्रेस (27) की 178 विधायकों वाली सरकार से अधिक बेहतर तरीके से चल सकती है।
एक आखिरी बात। अगर नीतीश कुमार ने बीजेपी से नज़दीकी बढ़ानी शुरू कर दी, तो लालू यादव और कांग्रेस के पास लाचार होकर तमाशा देखने के अलावा कोई और चारा नहीं बचेगा, क्योंकि गठबंधन टूटने की स्थिति में वे तो अपनी सरकार तभी बना पाएंगे, जब वे जनता दल यूनाइटेड को तोड़ दें, जो कि मुश्किल नहीं, असंभव के बराबर है। लेकिन नीतीश कुमार फौरन बीजेपी के साथ सरकार बना लेंगे, बिना किसी कठिनाई के। इसलिए बिहार की राजनीति का चाणक्य समझे जाने वाले नीतीश के पास तुरुप का एक पत्ता अभी बाकी है- बीजेपी से पुनः दोस्ती वाला। ऐसा करने के लिए उन्हें बस बिहार की जनता से सॉरी बोलना पड़ेगा। इससे अधिक कुछ भी नहीं। तो यकीन मानिए, आज नहीं तो कल फिर से बीजेपी और नीतीश का गठबंधन ज़रूर हो सकता है।