सूत्रों की मानें, तो करन जौहर और राज ठाकरे के बीच एक मैच-फिक्सिंग हुई। फिल्म ‘ऐ दिल है मुश्किल’ को लेकर। इस मैच फिक्सिंग का मकसद था कि करन जौहर की फिल्म को भरपूर पब्लिसिटी मिल जाए, ताकि जब यह दिवाली पर रिलीज हो, तो लक्ष्मी मैया उनकी झोली भर दें। कुछ धन-वर्षा राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की झोली में भी हो जाए। साथ ही, उनकी छवि भी एक ऐसे दबंग देशभक्त नेता की बने, जो अपने देश और उसकी सेना से बेइंतहां प्यार करता है, जिसे दुश्मन देश की हर चीज़ से नफ़रत है और जो हमेशा उसकी ईंट से ईंट बजाने के लिए तैयार रहता है।
जो राजनीति का खेल समझते हैं, उन्हें पता है कि महाराष्ट्र में शिवसेना और मनसे इस तरह की मैच-फिक्सिंग के माहिर खिलाड़ी हैं। अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से कभी शिवसेना, तो कभी मनसे बाज़ी मार ले जाती है। ठीक वैसे ही, जैसे सनसनी बेचने वाले दो समाचार चैनलों के बीच प्रतिस्पर्धा में एक ख़बर के मामले में पहला चैनल, तो दूसरी ख़बर के मामले में दूसरा चैनल बाज़ी मार ले जाता है। इस तरह की मैच-फिक्सिंग इन दोनों राजनीतिक दलों की फंडिंग का एक प्रमुख स्रोत है। वे जितना अधिक विवादों में रहते हैं और जितनी अधिक मीडिया सुर्खियां बटोरते हैं, चंदा भी उन्हें उतना ही अधिक मिलता है।
ख़ासकर, मनसे तो अपने अस्तित्व, चंदे और फंडिंग के लिए इसी तरह के विवादों पर निर्भर है, क्योंकि महाराष्ट्र में आज इसकी राजनीतिक शक्ति न के बराबर बची है। 288 सीटों वाली राज्य विधानसभा में उसके पास महज एक सीट है। 2014 के चुनाव में 218 सीटों पर इसने चुनाव लड़ा, जिसमें 203 पर ज़मानत ज़ब्त हो गई और पूरे राज्य में सिर्फ़ 3.7 फीसदी वोट मिले। वह आठवें नंबर की पार्टी रही। आप स्वयं समझ सकते हैं कि किसी राज्य में आठवें नंबर की पार्टी अगर इस तरह के पब्लिसिटी स्टंट न करे, तो कैसे उसकी प्रासंगिकता रहेगी और कैसे पार्टी चलाने का खर्चा आएगा?
हमें पहले से पता था कि फिल्म की रिलीज़ किसी कीमत पर नहीं टलेगी। किसी गुट या संगठन को मैनेज करके कोई कॉन्ट्रोवर्सी क्रिएट करा लेना या उससे अपना विरोध करा लेना आजकल फिल्मों के प्रचार का एक बेहद प्रचलित तरीका बन चुका है और बड़े-बड़े प्रोड्यूसर इसके लिए करोड़ों ख़र्च कर रहे हैं। चार लोग बंद कमरे में बैठकर मीडिया और कॉन्ट्रोवर्सी प्लानिंग करते हैं। बाहर लाखों-करोड़ों लोग अपना काम-धंधा छोड़कर इसपर डिबेट करते हैं और अपना पैसा लुटाते हैं।
इस किस्म की मैच-फिक्सिंगों में मीडिया एक प्रमुख पार्टनर रहता है, क्योंकि उसे भी इनका सीधा लाभ होता है। बाकी लोग जो बीच में आते हैं, उन्हें चाहे-अनचाहे इस्तेमाल हुआ माना जा सकता है। जैसे, करन और राज की इस मैच-फिक्सिंग में केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस चाहकर या बिना चाहे इस्तेमाल हो गए। राजनाथ सिंह ने करन जौहर को मिलने का समय देकर फिल्म की सुरक्षित रिलीज का आश्वासन दिया, जबकि देवेन्द्र फड़नवीस ने दोनों के बीच कथित तौर पर सुलह कराई। यह भी मुमकिन है कि शिवसेना के मुकाबले राज ठाकरे को ताकत देने की योजना के तहत बीजेपी भी इस गेम-प्लान का हिस्सा हो।
बहरहाल, यह मैच-फिक्सिंग भी अपने आप में मार-धाड़ और एक्शन से भरपूर एक देशभक्ति फिल्म जैसी ही थी, जिसकी हैप्पी एंडिंग होती है। देश का झंडा ऊंचा होता है। सेना कल्याण कोष के लिए पांच करोड़ रुपये मिल जाते हैं। आगे से पाकिस्तानी कलाकारों को काम नहीं देने का आश्वासन मिल जाता है। और फिल्म रिलीज के रास्ते की सारी बाधाएं भी दूर हो जाती हैं। तालियां।
लेकिन, इस मैच-फिक्सिंग का सबसे आपत्तिजनक पहलू है सेना के नाम के बेजा इस्तेमाल का। कोई अपनी राजनीति चमकाने के लिए, तो कोई अपनी फिल्म चमकाने के लिए सेना के नाम का बेजा इस्तेमाल कर रहा है। राज ठाकरे कौन होते हैं किसी से सेना कोष में जबरन पैसा जमा करवाने वाले? और करन जौहर जैसे AIB करने वाले व्यापारी को अगर पांच करोड़ देकर पचास करोड़ की पब्लिसिटी और देशभक्त होने का तमगा मिल जाए, तो उनकी तो बल्ले बल्ले है!
ऐसे तो सेना कोष में पांच करोड़ रुपये जमा कराके कोई भी सफ़ेदपोश देशभक्त होने का तमगा हासिल कर सकता है। अगर ऐसा होने लगे, तो कल को दाऊद इब्राहिम और हाफ़िज सईद से संबंध रखने वाले भी कहेंगे कि मैं सेना कोष में 50 करोड़ रुपये जमा करा देता हूं। मैं तुमसे बड़ा देशभक्त हूं! सेना को सामने खड़ी करके देशभक्ति की नीलामी बोली लगाना-लगवाना शर्मनाक है! अपने स्वार्थ या धंधे के लिए किसी को भी देश की भावनाओं से खेलने या राष्ट्रीय प्रतीकों के बेजा इस्तेमाल की इजाज़त नहीं दी जा सकती।
इतना ही नहीं, इस मैच-फिक्सिंग के चलते असली मुद्दा गौण हो गया। लगा, जैसे आज उरी में आतंकी हमला हुआ, तो बॉलीवुड में पाकिस्तानी कलाकारों पर बैन लग जाए और कल माहौल ज़रा सा सामान्य हो, तो फिर से उनके लिए रेड कार्पेट बिछा दी जाए। पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध इतना तात्कालिक और इतना सतही नहीं हो सकता। सलमान ख़ान भले पाकिस्तानी कलाकारों का पक्ष लेकर कह रहे हैं कि वे आतंकवादी नहीं हैं, लेकिन मैं भी उतनी ही मज़बूती से कह रहा हूं कि पाकिस्तानी कलाकार आतंकवादी हों या नहीं हों, लेकिन भारतीय मनोरंजन उद्योग में वे अंडरवर्ल्ड द्वारा भेजे हुए ज़रूर हो सकते हैं। और यह कोई मेरी मनगढ़ंत कहानी नहीं है।
सबको पता है कि दाऊद इब्राहिम समेत कई अंडरवर्ल्ड सरगना बॉलीवुड फिल्मों में अपना पैसा लगाते रहे हैं और हमारे बड़े-बड़े कलाकार उनके द्वारा प्रायोजित आयोजनों में नाचते-गाते आए हैं। गुलशन कुमार मारे गए। संजय दत्त ने अवैध हथियार रखने के मामले में पांच साल की सज़ा भुगती है। मोनिका बेदी अबू सलेम के साथ सालों रहकर आई हैं। ममता कुलकर्णी ड्रग्स तस्करी में पकड़ी गई हैं। कई और कलाकारों के पास से ड्रग्स बरामद हो चुके हैं। प्रिटी जिंटा समेत कई कलाकारों ने अंडरवर्ल्ड से धमकी मिलने की बातें कबूली हैं। ‘चोरी-चोरी चुपके-चुपके’ जैसी कई फिल्में जांच के दायरे में आ चुकी हैं।
ज़ाहिर है, अंडरवर्ल्ड के जो लोग अपनी ब्लैक मनी हमारे मनोरंजन उद्योग में लगाते होंगे, वे अपने कलाकार भी यहां भेज ही सकते हैं। अपने देश की बहुत सारी शानदार प्रतिभाओं को तो बॉलीवुड में जगह नहीं मिल पाती, और कइयों को जगह मिलती भी है तो सालों-साल शोषण के बाद, फिर पाकिस्तानी कलाकारों के प्रति बॉलीवुड के कुछ लोग हद से ज़्यादा मेहरबान रहते हैं, तो कोई तो वजह होगी?
इसलिए, किसी तात्कालिक घटना की वजह से पाकिस्तान के प्रति पैदा हुई नफ़रत के चलते हम वहां के कलाकारों का विरोध नहीं कर रहे, न हमारा विरोध सिर्फ़ युद्ध या तनाव काल के लिए है। हमारा विरोध शांति-काल के लिए भी है। हमारी इंडस्ट्री में पैसा लगाकर और यहां से पैसा कमाकर अंडरवर्ल्ड मज़बूत होता है। यह पैसा आतंकवादियों को भी पहुंचता है। बॉलीवुड का कनेक्शन अंडरवर्ल्ड से और अंडरवर्ल्ड का कनेक्शन आतंकवाद से है। ये दोनों भारत के ख़िलाफ़ काम करते हैं और इन दोनों को पाकिस्तान का संरक्षण प्राप्त है। अगर हम इनसे लड़ना चाहते हैं, तो उनके सारे कनेक्शन यहां से काटने होंगे। लड़ना है तो संपूर्णता से लड़िए, वरना आधी-अधूरी लड़ाई अंडरवर्ल्ड, आतंकवाद और पाकिस्तान तीनों को उल्टे ताकत ही दे रही है।