एक बात तो साफ़ है कि मुलायम सिंह पांच साल पहले ही अपना उत्तराधिकारी तय कर चुके हैं। अगर बेटे और भाई में से उन्हें भाई को तरजीह देनी होती, तो पांच साल पहले ही देते न, जब उनके बेटे को पॉलीटिक्स का ‘पी’ नहीं आता था और भाई बरसों से उनके इशारों पर कठपुतली डांस कर चुका था। अगर शिवपाल को तब उन्होंने अपनी विरासत नहीं थमाई, तो अब क्यों थमा देंगे? अब तो उनका बेटा स्वयं भी सियासत में सयाना हो चुका है! एक दिन चाचा को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर देता है और दूसरे दिन पैर छू लेता है।
बहरहाल, मुलायम सिंह अगर कह रहे हैं कि अमर सिंह उनके भाई हैं, मुख्तार अंसारी का परिवार ईमानदार है, शिवपाल यादव जनता के नेता हैं, अखिलेश शराबियों और जुआरियों की मदद कर रहे हैं, तो ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या मुलायम सिंह यह समझते हैं कि चुनाव मनी, मसल्स, कास्ट और रिलीज़न के कॉकटेल से ही जीते जाते हैं, और चुनाव से ठीक पहले इन्हें साथ लेकर चलना ही असली समाजवाद है?
या मुलायम सिंह एक पहलवानी दांव खेल रहे हैं? बाहर-बाहर दिखेंगे परिवार और पार्टी के उन तमाम लोगों के साथ, समय-समय पर जिनका इस्तेमाल करके वे यहां तक पहुंचे हैं। लेकिन भीतर-भीतर रहेंगे बेटे के साथ। अपने जीवनकाल में सत्ता और ताकत का हस्तांतरण वे पूरी तरह से अखिलेश के हाथों में कर देना चाहते हैं, लेकिन यह काम वे अपने तरीके से करेंगे, धीरे-धीरे करेंगे, बिना अपने माथे पर कोई पारिवारिक कलंक लिए करेंगे और धोबीपाट तरीके से ही करेंगे।
या मुलायम जानते हैं कि डांट-फटकार सिर्फ़ बेटा ही सुन और सह सकता है? बेटे को ऊपरी मन से डांट-फटकार देने में कोई बुराई नहीं है, क्योंकि इससे विरोधियों की अंतरात्मा को शांति मिलती है। लेकिन अगर दूसरों के साथ डांट-फटकार करेंगे, तो वे ज़्यादा नहीं सुनेंगे और पार्टी तोड़ देंगे। क्या मुलायम सिंह अकेले में अखिलेश को समझा देते होंगे कि तुम्हें जो करना है, करते रहो। बस मैं उन लोगों के सामने अगर कभी-कभी डांट दिया करूं, तो बुरा मत मानना। दूसरी तरफ, शिवपाल और अन्य को अकेले में कहते होंगे कि देखो मैंने कितना डांटा अखिलेश को।
या मुलायम सचमुच अपने परिवार को इकट्ठा रखना चाहते हैं? इतने साल उसे इकट्ठा रखते हुए सबको संतुष्ट करते हुए वे यहां तक पहुंचे हैं, तो उन्हें लगता हो कि उनके जीवनकाल में कम से कम परिवार में बिखराव न हो। या उन्हें लगता हो कि तमाम बुराइयों के बावजूद एकता से जैसे नतीजे हासिल किये जा सकते हैं, तमाम आदर्शवादी बातों के साथ भी बिखराव से वैसे नतीजे हासिल नहीं किये जा सकते?
या मुलायम सिंह अपने व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर यह समझते हों कि असली ताकत सत्ता की ताकत होती है, पद की ताकत होती है? परिवार के बीच छोटे-बड़े के चक्कर में उलझना बेवकूफ़ी है। शायद वह अखिलेश को समझाना चाहते हों कि परिवार में ऊंच-नीच सहकर भी अगर तुम सत्ता और पद पर बने रहते हो, तो तुम्हें प्रॉब्लम क्या है? आख़िर मुख्यमंत्री पद के लिए तुम्हारी दावेदारी पर तो कोई सवाल नहीं उठा पा रहा न?
या मुलायम सचमुच अपनी कोटरी में, अखिलेश अपनी कोटरी में और शिवपाल अपनी कोटरी में घिर चुके हैं? और वह कोटरी अपनी-अपनी महत्वाकांक्षा के चक्कर में उनकी महत्वाकांक्षाओं को उभारते रहते हैं और लड़वाते रहते हैं।
या मुलायम सिंह 10 साल पीछे की राजनीति कर रहे हैं, अखिलेश 10 साल आगे की राजनीति कर रहे हैं? क्या अखिलेश मान चुके हैं कि यह चुनाव उनका नहीं है, लेकिन अगर मुलायम और शिवपाल के तरीके से ही वे राजनीति करते रहे, तो आने वाले चुनाव भी उनके नहीं होंगे? क्या अखिलेश यह समझ चुके हैं कि अगर उन्हें लंबी राजनीति करनी है तो साफ़-सुथऱी छवि के साथ विकासवादी सियासत करनी होगी और विवादास्पद छवि के लोगों से दूरी बनाए रखनी होगी? क्या अखिलेश आने वाले दिनों में कानून-व्यवस्था और प्रशासन के मुद्दे पर एक सख्त मुख्यमंत्री के तौर पर नज़र आना चाहते हैं? या वह भी राजनीतिक नुकसानों का आकलन कर उनसे बचने के लिए सिर्फ़ दिखावे की राजनीति और झगड़े में उलझे हैं?
या अखिलेश यह महसूस कर रहे हैं कि कहने को वे मुख्यमंत्री ज़रूर हैं, लेकिन छत्तीस लोगों की टांगें अड़ने से उनके लिए काम करना मुश्किल होता है और इसके चलते उनकी बदनामी होती है और हंसी उड़ाई जाती है? क्या अखिलेश अपनी आलोचनाओं से विचलित हो जाते हैं, जैसा कि मुलायम सिंह का इशारा है?
क्या कुर्सी के लिए अखिलेश को मुख्तार अंसारी, अमर सिंह और शिवपाल यादव के आगे घुटने टेक देना चाहिए? क्या अखिलेश को समाजवाद के नाम पर परिवारवाद का बंधक बने रहकर अपनी संवेदना भोथरी करके सिर्फ़ सत्ता-सुख लूटते रहना चाहिए?
क्या अखिलेश भी वैसे ही हैं, जैसे उनके परिवार के बाकी सदस्य हैं, बस वे अपने अहंकार में परिवार के लोगों से झगड़ा मोल ले रहे हैं?
सवाल और भी हैं। मसलन, अमर सिंह किस तरह से मुलायम परिवार में आग लगा रहे हैं? या जैसा कि उदयवीर सिंह का दावा था अखिलेश की सौतेली मां साधना गुप्ता कैसे उनका परिवार फोड़ रही हैं? आख़िर साधना गुप्ता क्या चाहती हैं? पार्टी में वापसी करते ही अमर सिंह ऐसा कौन-सा खेल खेलने में जुटे हैं?
चाचा और भतीजे की इस लड़ाई को क्या बाप और बेटे की लड़ाई समझा जा सकता है? या पुत्रमोह में पड़े मुलायम के सामने सचमुच में दुविधा की स्थिति बन गई है कि भाई से कैसे निपटें? क्योंकि यह भाई ज़रा विकट है, बचपन से ही निकट है। दूसरी तरफ़, बेटा तो सबसे प्यारा है, आंखों का तारा है। क्या इसीलिए उन्हें सीधे नही, टेढ़े रास्ते से चलना पड़ रहा है?
या फिर, झगड़े की सारी बातें स्क्रिप्टेड हैं, दिखावा हैं और अखिलेश की छवि ठीक करने की कवायद भर हैं?