हो सकता है कि इस लेख के बाद आप हम पर यू टर्न का आरोप भी मढ़ें लेकिन पिछले 72 घंटों के अनुभवों पर अपनी राय जाहिर करना तो बनता है। कालेधन को रोकने के लिए उठाए गए सरकार के कदम पर हम अब भी उसके साथ हैं लेकिन जिस तरीके से इसको अमली जामा पहनाया जा रहा है वो निस्संदेह अनुभवहीनता और अदूरदर्शिता को दर्शाता है।
सरकार द्वारा हजार और पांच सौ के नोट बंद करने के फैसले के बाद पुराने नोटों के प्रचलन की पहली 72 घंटे की मियाद खत्म हो चुकी है। सरकार ने उन सभी जगहों पर अगले 72 घंटे तक और इस्तेमाल की छूट दी है जहां यह नोट अभी चलन में थे। सरकार का यह फैसला ही साफ दिखाता है कि सरकार किस कदर अधूरी तैयारी के साथ इतने बड़े फैसले को लेकर मैदान में उतरी है। 8 नवंबर की रात प्रधानमंत्री मोदी ने अपने फैसला सुनाते हुए देश की जनता को कहा कि 6 महीने से ज्यादा वक्त से इसकी तैयारी चल रही थी। हालांकि पिछले 72 घंटों में जिस तरह देश का आम जनमानस बेहाल होकर सड़कों पर आया है उससे साफ दिखता है कि इसकी कोई तैयारी नहीं थी।
दिल्ली के बहुमंजिला बंद एसी कमरों में हिंदुस्तान का करम लिखने वालों से अब लगता है कि इससे ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। करेंसी बदलने को लेकर आपका तंत्र न तो तैयार था और न ही सक्षम फिर इतना बड़ा फैसला क्यूं कर लिया गया यह समझ से परे है। प्रधानमंत्री के यह फैसला पहली नजर में बेहद दूरगामी लगा और हमने उसकी तारीफ की। बड़े नोट बंद करने के फैसले के साथ अब भी हम हैं, लेकिन अगले तीन दिनों तक जैसे देश बेहाल हुआ उससे साफ लगा कि इस फैसले को लागू करने की पर्याप्त तैयारी नहीं थी। मोदी के सिपहसालार उनको नुकसान पहुंचाने में जुटे हुए प्रतीत होते हैं।
देश की राजधानी दिल्ली के ज्यादातर बैंकों में पर्याप्त मात्रा में नए नोट नहीं पहुंच पाए हैं। ATM की तो बात ही दूर है। बाजार में पुराने नोट का चलन बंद हो गया है और लोग पैसे होने के बावजूद परेशान हैँ। बैंको में पर्याप्त सुविधा नहीं होने की वजह से बाहर लंबी-लंबी कतारें लगी हुई हैं जो सुबह से शाम तक मसलसल जारी है। इस फैसले को गौर से देखने के बाद और पिछले तीन दिनों से हो रही आम लोगों की परेशानी के बाद कुछ सवाल हमारे दिमाग में उठ रहे हैं जिसको आपसे शेयर करना हम जरुरी समझते हैँ।
- सरकार के अनुसार चलन में रहे बड़े नोट कुल अर्थव्यवस्था का 86 फीसदी है। यानी कुल मिलाकर हम यह मानें पिछले तीन दिनों से हमारी इकॉनोमी 14 फीसदी पर चल रही है जो अगले कुछ दिनों तक ऐसे ही चलेगी । ऐसे में इससे होनेवाले नुकसान का कोई आकलन किया गया है क्या दिखता तो नहीं है।
- जो बड़े नोट हैं उसको ज्यादातर कालाधन समझा जा रहा है, काफी हद तक ऐसा है भी ऐसे में उससे बड़े नोट को बाजार में लाने का क्या औचित्य है। हालांकि मौजूदा बड़े नोट के बंद हो जाने के बाद बाजार में कैश के स्वरुप में मौजूद कालाधन पर लगाम लगेगी लेकिन उसकी मात्रा कितनी है। देश में मौजूद कालाधन का नब्बे फीसदी से ज्यादा हिस्सा कैश में नहीं बल्कि दूसरे रुप में है मसलन, प्रॉपर्टी, सोना और जमीनें इत्यादि।
- जब बार बार देश में कैशलेस इकॉनोमी की बात की जा रही है तब ऐसे में सवाल लाजिमी है कि धरातल पर कितना काम हुआ है। सरकारी की सारी महत्वाकांक्षी योजनाओं को सिस्टम ने कैसे आत्मसात किया है हम सब जानते हैं। आज भी गांवों में लोगों के पास बैंक खाते नहीं है। खुदरा व्यापारी से लेकर खेती किसानी तक का कोई काम बिना पैसे के एक कदम नहीं बढ़ता और उनके पास कैशलेस इकॉनोमी के साधन तो दूर उनको इसका अर्थ भी समझ में नहीं आता।
- पिछले तीन दिनों में जो लोग अपने पैसे जमा करने, बदलवाने और निकालने के लिए सुबह से शाम तक कतार में नजर आ रहे हैं उसमें से कोई कालाधन वाला होगा ऐसा जान नहीं पड़ता। ज्यादातर वो लोग कतार में हैं जिनको दैनिक खर्चे के लिए पैसों की जरुरत है और उनका काम नहीं हो पा रहा है।
- जब बैंको के सारे ट्रांजैक्शन सरकार की निगरानी में होते हैं तब फिर सरकार खाते से पैसे निकासी की सीमा इतना कम क्यों कर रही है जितने से इस मंहगाई के दौर में कुछ भी नहीं होता। जाहिर है जितनी करेंसी की दरकार है उतनी करेंसी छापे नहीं गए हैं, तैयारी का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि नोट बदलने की प्रकिया में अब तक नोट ही नहीं छापे गए हैं। बाकी तैयारी का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है
- सरकार द्वारा तय न्यूनतम मजदूरी के पैसे निकालने में भी आपको दो बार बैंक जाना पड़ेगा जबकि आपकी जरुरत के सारे काम सरकारी संस्थानों से नहीं निपट सकते।
- जिनके पास वाकई कालाधन है वो न तो अब भी कतार में खड़े हैं और न हीं आनेवाले दिनों में कतार में खड़े होंगे। ऐसे में जब देश में महंगाई आसमान छू रही हो और आपके पास पैसे इतनी कम मात्रा में हो कि घर से कदम निकालना दूभर हो तो यह सरकार की अदूरदर्शिता को ही स्पष्ट करता है
- रिजर्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक जितना कैश बड़े नोट के तौर पर बाजार में उपलब्ध है तकरीबन 12 लाख करोड़ वो देश के कुल कालाधन तकरीबन 350 लाख करोड़ का 3 फीसदी हिस्सा होता है, अगर यह सब पैसा वापस बैंक में आ जाता है तब भी जिस कालाधन को वापस लाने की बात हम करते हैं वो कहीं से आता नहीं दिखता।
- रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि देश का 6 लाख करोड़ रुपया बड़े कर्जदार डकार गए हैं। यानी मौजूदा बड़े नोट का पचास फीसदी हिस्सा ऐसे में कितना कालाधन और कैसा कालाधन सरकार वापस लाना चाहती है इसको कोई रुटमैप साफ नहीं दिखता।
- अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव में पैसों के खेल को लेकर सरकार कहती है कि इससे चुनाव में पारदर्शिता बढ़ेगी यह सत्य भी है लेकिन अब तक पार्टी के इतिहास से यह नहीं लगता कि चुनाव में तय सीमा में वो काम करती रही है। ऐसे में यह महज दिखावा ही दिखता है।
और अंत में इन सभी बिंदुओं का आकलन करने के बाद हमें यह लगता है कि जो अब भी दिख रहा है वो बिल्कुल सत्य नहीं है। दो बातें हमें चिंतित कर रही हैं पहली यह कि एनपीए एकाउंट की वजह से बैंकों की खस्ताहाल माली हालत को ठीक करने के लिए हमारे आपके घरों में जमा सालों के पैसों को निकलवाने का काम सरकार ने किया है जिससे फिर से बड़े और रसूखदार कर्जदारों को कर्ज दिया जा सके और दूसरा यह आनवाले किसी संकट की आहट है जैसे सीमापार युद्ध या फिर आपातकाल।