ऐसा लगता है कि नोटबंदी के बाद सरकार, ख़ासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार दबाव में है। गोवा और गाज़ीपुर में गरजने वाले मोदी बीजेपी संसदीय दल की बैठक में अगर यह कहने को बाध्य होते हैं कि नोटबंदी के बारे में विपक्ष गलत जानकारियां फैला रहा है, तो यह इस बात का सबूत है कि विपक्ष के हमलावर तेवर से सरकार कुछ तो असहज महसूस कर रही है। साथ ही, उसे कहीं से यह अहसास भी होने लगा है कि विपक्ष के प्रचार से लोगों पर नकारात्मक असर हो रहा है।
इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने संसदीय दल की बैठक में यह अपील भी की कि पार्टी नेता नोटबंदी के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ शब्द का इस्तेमाल न करें, जबकि काले धन के ख़िलाफ़ ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ करने की बात पहली बार स्वयं उन्होंने ही की थी। नोटबंदी से 17 दिन पहले यानी 22 अक्टूबर को वडोदरा में उन्होंने कहा था कि “एक लाख करोड़ रुपये का काला धन सर्जिकल स्ट्राइक किये बिना वापस लाया गया। अगर हम सर्जिकल स्ट्राइक करें, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि क्या सामने आएगा।“
ज़ाहिर है कि पीएम मोदी के उक्त बयान ने मीडिया और पूरे देश में काफी सुर्खियां बटोरी थीं और इसीलिए 8 नवंबर की रात राष्ट्र के नाम संबोधन में जैसे ही उन्होंने नोटबंदी का एलान किया, लोगों और ख़ासकर बीजेपी समर्थकों ने इसे काले धन पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहना शुरू कर दिया। ऐसे में यह सवाल तो उठेगा कि काले धन से लड़ाई के संदर्भ में जिस फ्रेज को स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने गढ़ा था, अगर अब वे उसी से पीछा छुड़ाना चाहते हैं तो इसका मतलब क्या है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि नोटबंदी से पहले और तुरंत बाद मोदी इस मामले से मिलने वाले राजनीतिक फायदे को लेकर आश्वस्त थे, लेकिन अब उनका विश्वास डगमगाया है और इसीलिए नेताओं को ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी बड़ी-बड़ी बातें करने से परहेज बरतने की सलाह दी जा रही है? यह सवाल इसलिए भी उठाया जा सकता है, क्योंकि नोटबंदी के 14 दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट करके इसपर जनता की राय मांगी है। उन्होंने लिखा है- I want your first-hand view on the decision taken regarding currency notes. Take part in the survey on the NM App. (मैं नोटबंदी के बारे में लिए गए निर्णय पर आपकी राय जानना चाहता हूं। कृपया नमो ऐप के ज़रिए इस सर्वेक्षण में हिस्सा लें।)
सवाल है कि जब समूचा विपक्ष संसद में नोटबंदी के बारे में प्रधानमंत्री की राय जानना चाहता है, तब प्रधानमंत्री इसपर देश की राय क्यों जानना चाहते हैं? आख़िर फ़ैसला तो वे कर ही चुके हैं। और फ़ैसला भी ऐसा, जिसे वे कभी वापस नहीं लेना चाहेंगे। फिर जनता की राय पूछने का क्या मतलब? अब तो तीर कमान से निकल चुका है। अब तो प्रधानमंत्री, कैबिनेट और पार्टी के स्तर से सिर्फ़ यह कोशिश की जानी चाहिए कि कैसे जनता की मुश्किलों को जल्द से जल्द कम करें और इस फैसले को सफल बनाएं।
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, संसदीय दल की बैठक में नोटबंदी के बारे में बात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी की आंखों में तीन बार आंसू आए। आंखों में आंसू आना भावुकता की निशानी है। और भावुकता एक तरफ़ जहां साफ़-सच्चे मन की निशानी मानी जाती है, वहीं इसे कमज़ोरी का भी परिचायक माना जाता है। नोटबंदी के फ़ैसले को लेकर मोदी का मन साफ़ रहा होगा, इस बारे में तो कोई दो राय नहीं हो सकती, लेकिन क्या इन आंसुओँ को उनकी कमज़ोरी के रूप में भी देखा जा सकता है? अगर हां, तो क्या वे सिर्फ़ विपक्ष के हमलावर तेवर से दबाव महसूस कर रहे हैं या पार्टी के भीतर से भी उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिल रहा? मेरी राय में, अगर पार्टी के भीतर से उन्हें सबका साथ मिल रहा हो, तो सिर्फ़ विपक्ष के तेवरों से इतना भावुक होने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए।
कहा जा रहा है कि बैठक में सभी सांसदों ने प्रधानमंत्री को स्टैंडिंग ओबेसन दिया और नोटबंदी के फैसले का हर्षध्वनि से स्वागत किया, लेकिन गोवा में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को अगर याद करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। वहां उन्होंने कहा था कि कई सांसदों ने उनसे सोने की ख़रीदारी के लिए पैन आवश्यक नहीं करने की गुज़ारिश की थी और अगर वे उन सबके नाम उजागर कर दें, तो अपने-अपने इलाकों में वे जनता को मुंह दिखाने तक के काबिल नहीं बचेंगे। इतनी कठोर प्रतिक्रिया में हालांकि उन्होंने यह साफ़ नहीं किया था कि ये किन पार्टियों के सांसद थे, लेकिन यह भी साफ़ नहीं किया था कि ये सांसद उनकी अपनी पार्टी के नहीं थे।
बहरहाल, एक तरफ़ प्रधानमंत्री जहां बार-बार भावुक हो रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ़ शुरुआती दुविधा से उबरते हुए विपक्ष के तेवर अब हमलावर हो चुके हैं। साथ ही, उसकी एकता भी मज़बूत हुई है। मंगलवार को कांग्रेस की अगुवाई में 11 पार्टियों ने इस मुद्दे पर रणनीति बनाई। तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल पहले से ही आक्रामक हैं। मुलायम, मायावती और लालू की पार्टियां भी नोटबंदी का पुरज़ोर विरोध कर रही हैं। यहां तक कि सरकार में बीजेपी की सहयोगी शिवसेना भी नोटबंदी लागू करने के तौर-तरीके से नाख़ुश है।
ऐसे में एक बात तो साफ़ है कि नोटबंदी के बाद बगलें झांक रहे विपक्ष को अगर यूं हमलावर होने का मौका मिला है, तो इसके पीछे सरकार की अपनी कमज़ोरियां भी ज़िम्मेदार हैं। मसलन, एक तो उसने बिना मुकम्मल तैयारी के नोटबंदी का एलान कर दिया, दूसरे वह इसके फायदे भी ठीक से लोगों को नहीं समझा पा रही। फायदे की बातें अभी सिर्फ़ अरमानों में हैं और परेशानियां धरातल पर अपना तांडव कर रही हैं। अर्थव्यवस्था के सुस्त पड़ने का अंदेशा अलग।
बकौल प्रधानमंत्री विपक्ष अगर दुष्प्रचार कर रहा है, तो इसका माकूल जवाब तो यही हो सकता है कि उसे सामने से जवाब दिया जाए। और अगर संसद का सत्र चल रहा हो, तो वहां जवाब देने से बेहतर क्या हो सकता है? आख़िर प्रधानमंत्री अपनी बात अलग-अलग रैलियों और सभाओं में तो बोल ही रहे हैं। संसद में भी क्यों नहीं बोल सकते? अगर उनके बयान के बाद भी विपक्ष का रवैया असहयोग का ही बना रहता है, तो जनता उसे भी देखेगी।
आख़िरी बात। अगर नोटबंदी का फ़ैसला देशहित में है, तो सरकार और ख़ास कर प्रधानमंत्री मोदी को किसी भी रूप में अपनी कमज़ोरी नहीं दिखानी चाहिए, इसपर सख्ती से आगे बढ़ना चाहिए और देश के लोगों को मज़बूत तथ्यों के साथ अधिक जागरूक करना चाहिए। आख़िर अफवाहों की काट तो सही जानकारी ही हो सकती है।