मैं शपथपूर्वक यह घोषणा करता हूं कि मैं ‘देशद्रोही’ नहीं हूं। ऐसा इसलिए कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 500, 1,000 जैसे बड़े करंसी नोटों को बंद करने के सरकारी फैसले का विरोध करने वालों को लगभग ‘देशद्रोही’ करार दे दिया है। चूंकि, मैं आगे की पंक्तियों में सरकार के फैसले की आंशिक आलोचना करने जा रहा हूं, इस ‘हलफनामे’ के लिए मजबूर हुआ। ‘देशद्रोही’ संबंधी ताजा विशेषण से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। हमारे राजनेता इन दिनों विश्वशक्ति अमेरिका से कुछ ज्यादा ही सीख लेने लगे हैं। और मैं यह बता दूं कि यह अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए का कभी दांव हुआ करता था कि सवाल उठाने वालों को ‘देशद्रोही’ बता दो-विशेषकर पत्रकारों को।
मैं ‘देशद्रोही’ नहीं, बल्कि एक ऐसा राष्ट्रभक्त हूं, जो व्यापक राष्ट्रहित में समाजवादी पूंजी व्यवस्था की हिमायत करता है, ताकि देश के बहुसंख्यक किसान, मजदूर, छोटे एवं मध्यम व्यापारी, अल्प व मध्यम वर्ग, नौकरीपेशा, गृहणियां आदि सम्मानपूर्वक सुखी जीवन व्यतीत कर सकें। मैं उस पूंजीवादी व्यवस्था का विरोधी हूं, जो धन पशुओं को इतना शक्तिशाली बना देती है, कि वह वर्ग बहुसंख्यक जनता को धन बल से लगभग अपना गुलाम बना लेती है। दु:खद रूप से इस पूंजीपति वर्ग को सत्ता का समर्थन भी मिल जाता है। देश की ताजा स्थिति कुछ ऐसी ही है। आम आदमी विभिन्न परेशानियों के बोझ तले दबा-कुचला सिसकने को मजबूर है, जबकि धन पशु इन सिसकियों पर अट्टाहस का जाम छलकाते दिख रहे हैं। आम जनता की पीड़ा को उजागर कर आंदोलन चला इस वर्ग को न्याय दिलाने वाला ‘माध्यम’ भी आज कमोबेश पूंजीपतियों की गोद में जा बैठा है। खुशी-खुशी उनके तलवे चाट रहा है। बेचारी आम जनता तिरस्कृत हो अपनी नियति पर सिसकने को मजबूर है। भारत सरकार अर्थात मोदी सरकार का बड़े नोट बंद करने संबंधी ताजा आदेश भी आम जनता विरोधी और धन पशुओं का हिमायती है।
बात चूंकि सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ी है, मैं संदर्भवश देश के वित्त मंत्री अरुण जेटली को उद्धृत करना चाहूंगा। 21 जनवरी 2014 को जब डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व की कांग्रेस सरकार ने 2005 से पहले के सभी नोटों को रद्द करके बदलाव की सलाह दी थी, तब करंसी के फेरबदल पर अरुण जेटली ने टिप्पणी की थी कि ‘करंसी बदलने का यह फैसला आम आदमी को परेशान करने और उन्हें बचाने के लिए है, जिनका भारत के जीडीपी के बराबर कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है।’ आज वही अरुण जेटली देश के वित्त मंत्री हैं और बड़ी करंसी को रद्द कर रहे हैं। क्या अब इस फेरबदल से आम आदमी परेशान नहीं हो रहा है? जेटली के पुराने शब्दों के आधार पर अब अगर देश यह मान ले कि इस फैसले से जीडीपी के बराबर कालाधन रखने वाले लोगों का बचाव किया गया है, तब सरकार क्या जवाब देगी?
प्रधानमंत्री मोदी ने निर्णय की घोषणा करते हुए देश को बताया था कि इससे कालाधन पर अंकुश लगेगा, आतंकवाद को आघात पहुंचेगा। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता। किंतु, यह सवाल तो पूछा ही जाएगा कि जब बड़े करंसी नोटों से कालाधन के प्रसार में सहायता मिलती है, तब फिर 500 और 1,000 के नए नोटों के साथ 2,000 रुपये के नए नोट क्यों? क्या इससे काले धन के प्रचलन को और सहूलियत नहीं मिलेगी? इस सवाल का माकूल जवाब सरकार की ओर से अभी तक नहीं आया है। लेकिन, सरकार को जवाब देना ही होगा।
बसपा प्रमुख मायावती ने जब सरकार के इस कदम को ‘इकोनामिक इमरजेंसी’ निरुपित किया, तब विरोध और समर्थन में अनेक तर्क सामने आए। अमित शाह ने चुटकी ली कि केंद्र का कदम बसपा के लिए ‘इकोनामिक इमरजेंसी’ साबित हो रहा है। इतने गंभीर मुद्दे को उपहास का पात्र बनाना शर्मनाक है। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव ने भी सरकार के कदम की आलोचना की है। राहुल गांधी ने भी आम लोगों की तकलीफ के मद्देनर सरकार के कदम का विरोध किया है। ध्यान रहे, उत्तर प्रदेश में चुनाव होने जा रहे हैं, भाजपा येन-केन प्रकारेण यह चुनाव जीतना चाहती है। प्रदेश में भाजपा की हार का मतलब होगा, प्रधानमंत्री मोदी के आभामंडल का क्षरण। अमित शाह के नेतृत्व पर सवालिया निशान। और आगे महत्वपूर्ण गुजरात राज्य में भी पराजय की तलवार। कोई आश्चर्य नहीं कि, भाजपा उत्तर प्रदेश में सब कुछ दांव पर लगा देगी। ये किसी से छुपा नहीं है कि चुनाव धन बल पर लड़ा जाता है। और इस धन का स्रोत कालाधन होता है-उत्तर प्रदेश में कुछ ज्यादा ही। तो क्या यह मान लिया जाए कि सत्ता की दावेदार सपा और बसपा के पैरों में जंजीर डालने के लिए सरकार ने ऐसा कदम उठाया। आरोप है कि सत्ता पक्ष ने इस आदेश के पूर्व ही अपने लिये ‘व्यवस्था’ कर ली थी। चक्कर में पड़े तो मुलायम और मायावती, राहुल।
शक के आधार मौजूद हैं। प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा था कि फैसले को पूर्णत: गुप्त रखा गया था, लेकिन अब प्रमाण सामने आए हैं कि लगभग छह माह पूर्व ही गुजरात के एक दैनिक ने 500, 1,000 के नोटों के बंद करने संबंधी ‘निर्णय’ की खबर छाप दी थी। भाजपा के एक सांसद के बहुप्रसारित हिन्दी दैनिक ने भी विगत 20 अक्टूबर को तत्संबंधी खबर प्रकाशित की थी। फिर गोपनीयता? साफ है कि कुछ खास लोगों को इस ‘ऐतिहासिक’ फैसले की पूर्व जानकारी थी। फिर ‘व्यवस्था’ तो हुई ही होगी।
अंत में एक अंतिम जिज्ञासा। इस निर्णय की घोषणा के पूर्व प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों सेना प्रमुखों से क्यों और क्या चर्चा की? नोटों की बंदी से सेना का तो कोई सरोकार हो नहीं सकता! फिर?