मशहूर गांधीवादी चिंतक, पर्यावरणविद् और सच्चे सरल इंसान अनुपम मिश्र जी अब हमारे बीच नहीं रहे। कैंसर से जूझते हुए आज सुबह 5 बजकर 40 मिनट पर एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली। जिस साल गांधी इस दुनिया से विदा हुए उसी साल अनुपम जी हमारे बीच आए। अब 68 साल की उम्र में उन्होंने हम सबसे विदा ले लिया।
अनुपम मिश्र के निधन पर उनको जानने वालों और उनके चाहने वालों से अपने अपने तरीके से याद किया। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक प्रियदर्शन ने लिखा –
“स्मार्टफोन और इंटरनेट के इस दौर में वे चिट्ठी-पत्री और पुराने टेलीफोन के आदमी थे। लेकिन वे ठहरे या पीछे छूटे हुए नहीं थे। वे बड़ी तेजी से हो रहे बदलावों के भीतर जमे ठहरावों को हमसे बेहतर जानते थे। जब भी उनका फोन आता, मुझे लगता कि मैं अपने किसी अभिभावक से बात कर रहा हूं जिसे इस बात की सफाई देना जरूरी है कि मैंने वक्त रहते यह काम या वह काम क्यों नहीं किया है। तिस पर उनकी सहजता और विनम्रता बिल्कुल कलेजा निकाल लेती। उनको देखकर समझ में आता था कि कमी वक्त की नहीं हमारी है जो हम बहे जा रहे हैं।
वे मौजूदा सामाजिक पर्यावरण में ओजोन परत जैसे थे। उनसे आॅक्सीजन मिलती थी, यह भरोसा मिलता था कि तापमान कभी इतना नहीं बढ़ेगा कि दुनिया जीने लायक न रह जाए।
लेकिन मौत पिछले कई दिनों से कैंसर की शक्ल में उन्हें कुतर रही थी। हम तमाम लोग इस अपरिहार्य अघटित से आंख नहीं मिला पा रहे थे। यह वाक्य अंतत: लिखना पड़ रहा है कि अनुपम मिश्र नहीं रहे। बस, प्रणाम।”
एनडीटीवी में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश शर्मा ने लिखा –
“पानी के सेवक और जन को जड़ से जोड़ने वाले गांधीवादी अनुपम मिश्र नहीं रहे। उनकी पुस्तक “आज भी खरे हैं तालाब” जल संरक्षण में बेहद महत्वपूर्ण है”
सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार पंकज झा ने लिखा
“हे भगवान. क्या कोई ‘इंसान’ नही बचेगा क्या धरती पर? अनुपम मिश्र जी भी नही रहे. उफ़. प्रणाम.”
ईश्वर की इस अनुपम देन अनुपम मिश्र को मीडिया सरकार की ओर से श्रद्धांजलि.
कौन थे अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में 1948 में हुआ। उनकी माता का नाम श्रीमती सरला मिश्र और पिता का नाम भवानी प्रसाद मिश्र था। पिता भवानी मिश्र हिंदी के जानेमाने कवि थे। अनुपम मिश्र पर्यादवरण के लिए सबसे पहले काम करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण-संरक्षण के लिए तब से काम शुरू किया, जब कि भारत में इसके लिए कोई विभाग भी नहीं हुआ करता था।
उनकी कोशिश से सूखाग्रस्त राजस्थान के अलवर में जल संरक्षण का काम शुरू हुआ, जिसे दुनिया ने देखा और सराहा। उनकी कोशिशों से ही सूख चुकी अरवरी नदी के पुनर्जीवन संभव हो सका। उन्होंने उत्तराखंड और राजस्थान के लापोड़िया में परंपरागत जल स्रोतों के पुनर्जीवन की दिशा में अहम काम किया।
उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से 1968 में संस्कृत में पोस्ट ग्रेजुएशन की और दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की। साल 2001 में वो दिल्ली में स्थापित सेंटर फॉर एनवायरमेंट ऐंड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहें। उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लिए साल 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साल 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार ‘इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया।