सभी थियेटरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाए, इस दौरान स्क्रीन पर तिरंगा फहरता रहे और सभी दर्शक इसके सम्मान में खड़े रहें- सोचिए, कि ऐसा आदेश अगर सुप्रीम कोर्ट की बजाय सरकार की तरफ़ से आता, तो क्या होता?
शायद देश में फिर से देशप्रेमी और देशद्रोही की बहस छिड़ जाती। शायद फिर से देश में असहिष्णुता का महाविस्फोट हो जाता। शायद फिर से कुछ लोग पुरस्कार लौटाना शुरू कर देते। शायद फिर से कुछ लोगों के मन में भारत छोड़कर सीरिया या पाकिस्तान जैसे मुल्कों में बस जाने का ख्याल आने लगता।
लेकिन थैंक गॉड, यह फैसला उस सुप्रीम कोर्ट से आया है, जिसके चीफ जस्टिस की इमेज आजकल सरकार-विरोधी बनी हुई है और हाल के महीनों में इस कोर्ट से कई ऐसे फ़ैसले आए हैं, जिनसे सरकार और उसके मुख्य घटक दल भाजपा की किरकिरी हुई है। इनमें अरुणाचल और उत्तराखंड की बर्खास्त कांग्रेस सरकारों को बहाल करना शामिल है।
दो दिन पहले भी ख़बर आई कि चीफ जस्टिस इस बात से सरकार से नाराज़ हैं कि देश के उच्च न्यायालयों में जजों के 500 पद क्यों खाली पड़े हैं। ऐसे माहौल में, कम से कम कोई यह नहीं कह सकता कि सभी थियेटरों में राष्ट्रगान बजाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पीछे सरकार या आरएसएस का कोई हिडेन एजेंडा है।
दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आजकल लोग नहीं जानते कि राष्ट्रगान को कैसे गाया जाए, इसलिए इसकी सीख उन्हें अवश्य दी जानी चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को फैसले को दस दिनों के भीतर लागू करना है। कोर्ट ने कहा है कि इससे लोगों को संवैधानिक देशभक्ति के साथ-साथ प्रतिबद्ध देशभक्ति और राष्ट्रवाद (constitutional patriotism as well as committed patriotism and nationalism) का सबक मिलेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला एक जनहित याचिका पर दिया, जिसमें राष्ट्रगान बजाने के बारे में देश की शीर्षस्थ अदालत से गाइडलाइन जारी करने की गुज़ारिश की गई थी। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने विस्तार से इस बात को समझाया है कि क्यों अपने देश, अपने राष्ट्रीय ध्वज और अपने राष्ट्रगान के प्रति लोगों में सम्मान पैदा करने की ज़रूरत है।
आशा है, देश के कुछ ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग इसपर किसी किस्म का विवाद पैदा करने की कोशिश नहीं करेंगे और इस फैसले को हृदय से स्वीकार करेंगे।