जिस तरह से नोटबन्दी में सरकार की कथित तैयारियों की असलियत सामने आ रही है और खुद सरकार रोज नई समय सीमा तय कर रही है उससे सबके मन में कई तरह के सवाल उठने लगे हैँ। पहला सवाल तो यही है कि मोदी जी ने भले ही इतना बडा कदम काला धन खत्म करने के नाम पर उठा लिया हो पर जो सच्चाई सामने आ रही है वह कालाधन की जगह पूरी अर्थव्यवस्था को लेकर ही है। अगर अब प्रधान मंत्री द्वारा दी जा रही नई समय सीमा-अगले पचास दिन की ही गिनती ध्यान में रखें तो आर्थिक कामकाज और विकास की रफ्तार का सहज अनुमान लगाया जा सकता है, और अर्थशास्त्र का हर जानकार मानता है कि पैसा जितना ही ज्यादा सर्कुलेशन में रहता है अर्थव्यवस्था का विकास उसी रफ्तार मेँ होता है. अगर नोटबन्दी के पहले छह दिनों में तीन लाख करोड पुराना नोट ही वापस आया है और नया धन एक लाख करोड भी नहीं बंट पाया है तो साफ है कि 15-15 लाख करोड करेंसी को बदलने की मुहिम कम से कम दो-तीन महीने का समय लेगी.
मामला हर किसी के नोट बदलने और एटीएम के लाइन में लगने भर का नहीं है और अगर अपने पैसे को निकालने के लिए आपको दिन भर का वक्त, दो-चार फोटोकॉपी, कुछ गुटखा, कुछ चाय खपाना पडे और कभी दो हजार तो कभी ढाई हजार भर की नकदी मिले तो इससे कितनी आर्थिक गतिविधियाँ चलेंगी इसका सहज अनुमान हो सकता है। और नकदी के संकट में कौन कौन बाजार बन्द है और कौन आर्थिक गतिविधि मन्द हुई है यह हिसाब लगाना यहाँ जरूरी नहीँ हैं, पर अगर नोट कम आएंगे या अभी कुछ दिन कम रहेंगे, आर्थिक गतिविधियाँ डंवाडोल रहेंगी तब कैसे अर्थव्यवस्था आगे बढ़ेगी और साफ होगी यह समझना मुश्किल है।
प्रधान मंत्री को तो उन आम लोगों का एहसानमन्द होना चाहिये जो एक-दूसरे पर भरोसा करते हुए सामान का लेन-देन और पुराने नोट भी ले-देकर कामकाज ठप्प नहीं होने दे रहे हैँ। जो दूसरे का पुराना नोट लेकर सब्जी दे रहा है, राशन दे रहा है या कोई सेवा दे दे रहा है वह न तो कालाधन का पोषक है न अनिवार्यत: देशद्रोही। दूसरा बडा सवाल है कि अगर सरकार की, आर्थिक निगरानी शाखाओँ के, आयकर विभाग के लोग पहले ही कितना तत्पर रहे हैं यह साफ दिखता है। उसका ही प्रमाण आज की कालेधन की समस्या है। सरकार नोट तो बदलवा रही है क्या वह अपनी इस मशीनरी को भी बदलेगी। अगर वही मशीनरी रही तो आगे सब कुछ ठीक हो जाएगा यह गारंटी कौन देगा। और आज यह बात बार-बार कही जा रही है कि सभी ज्वैलर्स पर नजर रखी जा रही है, बैंक के हर बड़े लेन-देन पर नजर रखी जा रही है तो क्या यह सब काम पहले नहीं होता था, और क्या सरकार के पास कालाधन रखने वालों के बारे में कोई जानकारी ही नहीँ है। संसद आने पर अपने चुनाव खर्च का ब्यौरा ही कितने लोग सही दे रहे हैँ या गलत यह सरकार को जरूर मालूम होगा। पहले की कोई भी सूचना थी तो कितने लोगोँ के खिलाफ कार्रवाई हुई है। और उन्हीं पर कार्रवाई करने की जगह सरकार सभी लोगों को क्यों मार रही है-सर्जिकल स्ट्राइक की जगह कारपेट बाम्बिंग क्योँ की जा रही है.
तीसरा बडा सवाल यह है कि कालाधन कैश मेँ कितना रखा जा रहा है। व्यावहारिक अनुभव के आधार पर तो यही लगता है जो होशियार लोग हैँ वे आज कैश में कम ही भरोसा रखते हैँ। इलेक्ट्रॉनिक मनी में भी कालाधन सर्कुलेट होता है पर ज्यातर कालाधन रखने वाले कैश कम ही रखते हैँ। कालाधन के खिलाफ पड़े छापों की रिकवरी के पुराने आंकड़े बताते हैँ कि रिकवरी में नकदी का हिस्सा छह फीसदी से भी कम होता है। और यह माना जा सकता है कि सभी होशियार कालाधन न रखते हों पर कालाधन रखने वाले सभी होशियार ही होंगे, सो उनमें से कुछ ही बुडबक होंगे जो अब भी बोरियों में नोट रखने का शगल रखते होंगे। यह बात शायद अब प्रधान मंत्री भी महसूस करने लगे हैं तभी वे काला धन निकालने की और योजनाएँ लाने की बात करने लगे हैं। बेहतर होता पहले दूसरे काम कर लिए जाते और फिर भी कालाधन न निकलता या दिखता रहता तब नोटबन्दी जैसा फैसला लिया जाता।
फिर यह सवाल तो है ही कि इस अभियान का खर्च क्या होगा और इससे लाभ-घाटा क्या होगा। अभी पांच-छह दिनों के आर्थिक नुकसान समेत आने वाले दिनों की कमी को अर्थव्यवस्था के नुकसान के तौर पर देखा जाए तो क्या नए नोट आकर उसकी भरपाई करा देंगे. लाभ-घाटे के इस सामान्य हिसाब से ज्यादा बडा मसला है कि नोट छापने, एटीएम मशीनों में बदलाव, कर्मचारियों के ओवेरटाइम और दूसरे खर्च कहाँ से निकलेंगे। सिर्फ इसी मद पर तीस से पचास हजार करोड रुपए का खर्च होने का अनुमान बताया जा रहा है। अगर इतनी रकम भी काला धन के रूप में नहीं निकली तो फिर दाउद की कमर तोड़ने, पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेरने, अरबों का घपला करने वालों को चार हजार केलिए लाइन में लगने की मजबूरी जैसे जुमलों का क्या होगा।
इन सवालों से भी ज्यादा मुश्किल स्थिति यह है कि अब इस काम को बीच में छोडा भी नहीं जा सकता। संभवतः सभी पहलुओँ पर विचार नहीं किया गया। ऐसा फैसला गोपनीयता की मांग तो करता है पर पूरी अर्थव्यवस्था मेँ उथल-पुथल मचाने वाले फैसले के समर्थन में काफी बडी टीम भी चाहिये, और भले ही भाजपा के पैसे पहले जमा कराने और कुछ लोगों को खबर होने का आरोप लगे पर लगता यह है कि शायद कैबिनेट के सीनियर लोगों को भी बहुत बाद में सिर्फ सूचना दी गई-विचार तो बहुत कम लोगों से किया गया।