कुछ साल पहले जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने जब कहा था कि भारत के 90 प्रतिशत लोग बेवकूफ़ हैं, तो इस पर काफी विवाद हुआ था। हालांकि काटजू का संदर्भ यह था कि धर्म के नाम पर यहां के लोगों को बहुत आसानी से बहकाया जा सकता है। उन्होंने कहा था कि इस देश में सिर्फ़ 2000 रुपये में दंगा भड़काया जा सकता है। कोई अगर किसी पूजा-स्थल के लिए असम्मान दिखाते हुए कोई शरारतपूर्ण काम कर दे, तो लोग आपस में झगड़ना शुरू कर देते हैं। वे यह भी समझने की कोशिश नहीं करते कि इसके पीछे कुछ भड़काने वाले लोग हो सकते हैं।
बेवकूफ़ी मतलब बुद्धि और चेतना की कमी। इसका संबंध दिमाग से है। इसलिए चाहें तो बेवकूफ़ी को एक प्रकार का मानसिक विकार भी मान सकते हैं, जिसमें लोग कई कारणों से सही-गलत समझने की शक्ति खो देते हैं। काटजू की वह बात कितनी सही थी, कितनी ग़लत- यह तो विवाद का विषय हो सकता है, लेकिन एक ताज़ा अध्ययन से भी यह सामने आया है कि करीब 6 करोड़ भारतीय मानसिक विकारों से ग्रस्त हैं और यह संख्या दक्षिण अफ्रीका की कुल आबादी से भी अधिक है।
ख़ुद केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड़्डा ने लोकसभा को नेशनल कमीशन ऑन मैक्रोइकॉनामिक्स एंड हेल्थ 2015 की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि साल 2015 तक एक से दो करोड़ भारतीय (कुल आबादी का एक से दो फीसदी) गंभीर मानसिक विकारों के शिकार हैं, जिसमें सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसऑर्डर प्रमुख हैं और करीब 5 करोड़ आबादी (कुल आबादी का पांच फीसदी) सामान्य मानसिक विकारों जैसे अवसाद और चिंता से ग्रस्त है।
काटजू का आकलन विशुद्ध रूप से लोगों के सामाजिक व्यवहार पर आधारित था, जबकि जेपी नड्डा द्वारा पेश किए गए आंकड़े मेडिकल टर्म्स के हिसाब से हैं। लेकिन दोनों आकलनों से जो एक प्रमुख बात निकलती है, वह यह कि भारत में लोगों को दिमाग के स्तर पर दुरुस्त रखने के लिए कई तरह के प्रयास किए जाने की ज़रूरत होगी। लोग सामाजिक रूप से बात-बात पर उग्र न हो जाएं, लड़ने न लगें, वस्तुस्थिति को समझकर धैर्य, संयम, सहिष्णुता बनाए रखें, इसके लिए भी बड़े पैमाने पर लोगों को सही जानकारी और सही समझदारी देने के साथ ही उचित काउंसिलिंग की ज़रूरत होगी, जिसके लिए न लोग हैं, न संस्थाएं हैं, न सरकार के स्तर से कोई प्रयास किए जाते हैं।
दूसरी तरफ, मेडिकल टर्म्स में भी लोग दिमागी तौर पर स्वस्थ रहें, इसके लिए जैसे इंतज़ाम होने चाहिए, वह नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की साल 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत अपने स्वास्थ्य बजट का महज 0.06 फीसदी हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है। यह बांग्लादेश से भी कम है, जो करीब 0.44 फीसदी खर्च करता है। दुनिया के ज्यादातर विकसित देश अपने बजट का करीब 4 फीसदी हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी रिसर्च, इलाज और काउंसिलिंग इत्यादि पर ख़र्च करते हैं।
भारत में मानसिक मुद्दों का समाधान करने के लिए स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी है। विशेष रूप से जिला और उप जिला स्तर पर इनकी संख्या बेहद कम है। दिसम्बर 2015 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा लोकसभा में दिए गए एक उत्तर के अनुसार, देश में कुल 3,800 साइकियाट्रिस्ट, 898 क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, 850 साइकियाट्रिक सोशल वर्कर और 1500 साइकियाट्रिकनर्स हैं। इसका मतलब यह है कि भारत में दस लाख नागरिकों के लिए केवल एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़े के मुताबिक, यह संख्या राष्ट्रमंडल देशों के प्रति एक लाख आबादी पर 5.6 मनोचिकित्सक से 18 गुना कम है।
ज़ाहिर है, देश के मानसिक स्वास्थ्य और समझदारी को दुरुस्त रखने के लिए चौतरफा प्रयासों की ज़रूरत है, जिसके अभाव में भारत के लोग न सिर्फ़ अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक और प्रोफेशनल जीवन में डिस्टर्ब रह सकते हैं, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संघर्षों में भी उलझे रह सकते हैं।
(इस लेख में कुछ इनपुट्स आईएएनएस से लिए गए हैं।)