हाल के दिनों में खबरिया राष्ट्रीय टीवी चैनलों की, कुछ अपवाद छोड़, भूमिका निर्लज्ज भांड की तरह रही है। दूसरों के वस्त्र उतारने की कोशिश करने वाले स्वयं जब निर्वस्त्र हो बेशर्मों की तरह छाती पीटते हैं तब, वे निश्चय ही पवित्र पत्रकारिता के मंदिर के संस्थापकों बाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदन मोहन मालवीय आदि-आदि का अपमान ही नहीं, उनके द्वारा स्थापित पत्रकारिता के मापदंड के साथ बलात्कार करते प्रतीत होते हैं। सत्ता-स्तुति में ये तत्व समाज और राष्ट्रहित को तिलांजलि देने में भी नहीं हिचकते।
मीडिया मंडी में शोर है कि ‘‘हम सब चोर हैं!’’ शोर के आगे तूफान कि सभी को निर्वस्त्र कर दिल्ली के जीबी रोड, मुंबई के कमाठीपुरा, कोलकाता के सोनागाछी आदि में क्यों ना बिठा दिया जाए? ओह! ऐसी जलालत उस पेशे और पेशेवरों के लिए जिसे कभी गर्व से पवित्र मंदिर और मंदिर के निष्कलंक पुजारी कहा जाता था। कौन जिम्मेदार है इस अपमानजनक अवस्था के लिए? इलाज ढूंढने के लिए, पेशे की पवित्रता की पुनस्र्थापना के लिए जरूरत है एक ईमानदार आत्ममंथन की।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी सवाल करते हैं कि ‘यह कैसी पत्रकारिता है? सत्ताधारी विचारधारा से कैसे गठजोड़ है? खुला खेल फरुखाबादी!’ पत्रकार बिरादरी को शर्म आएगी? पूरी बिरादरी को तो कतई नहीं। प्रतिशत में तो नहीं जाऊंगा, हां, यह जरूर कहूंगा कि उंगलियों पर गिने जाने लायक ईमानदार, निष्पक्ष, निडर पत्रकारों को छोड़, पत्रकारों का बहुमत ‘आत्ममंथन’ से दूर रहेगा क्योंकि, ऐसी दु:ख अवस्था को जन्म देने वाले ये ही तो हैं।
पिछली बातों को छोड़ दें। हाल के दिनों में खबरिया राष्ट्रीय टीवी चैनलों की, कुछ अपवाद छोड़, भूमिका निर्लज्ज भांड की तरह रही है। दूसरों के वस्त्र उतारने की कोशिश करने वाले स्वयं निर्वस्त्र हो बेशर्मों की तरह छाती पीट-पीटकर जब खुद को महान राष्ट्रभक्त साबित करने की कोशिश करते हैं तब, वे निश्चय ही पवित्र पत्रकारिता के मंदिर के संस्थापकों राम मोहन राय, बालकृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, दादाभाई नौरोजी, एमजी रानाडे, एनी बेसेंट, केएम पन्नीकर, जी सुब्रमणिया अय्यर आदि-आदि का अपमान ही नहीं, उनके द्वारा स्थापित पत्रकारिता के मापदंड के साथ दिन के उजाले में चौराहों पर, भीड़ के सामने बलात्कार करते प्रतीत होते हैं। सत्ता-स्तुति में ये तत्व समाज और राष्ट्रहित को तिलांजलि देने में भी नहीं हिचकते। कतिपय ओछी, निज स्वार्थपूर्ति के लिए ये तत्व लोकतंत्र के एक निहायत जरूरी अंग, विरोध के स्वर को सत्तापक्ष में निर्दयता पूर्वक कुचलने में नहीं हिचकते। ओम थानवी की पीड़ा इन्हीं वर्जनाओं पर आधारित है।
थानवी ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कुछ दृष्टांत पेश किए हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के टीवी चैनल ’टाइम्स नाऊ’ के अर्णब गोस्वामी पर गंभीर आरोप लगा है कि अपनी एक चर्चा कार्यक्रम में भाजपा प्रवक्ता के साथ गठजोड़ कर अपनी ही बिरादरी के बंधुओं को राष्ट्रविरोधी पाले में धकेल दिया। घोर, बल्कि बेशर्म पक्षपाती रवैया प्रदर्शित करते हुए अर्णब ने पत्रकार सबा नकवी को तो बोलने ही नहीं दिया, लेकिन भाजपा प्रवक्ता श्रीकांत शर्मा उनके अन्य सहयोगी वक्ताओं को जरूरी होने पर भी रोका नहीं गया। श्रीकांत शर्मा ने आपत्तिजनक सांप्रदायिक सोच के आधार पर मुस्लिम पत्रकार सबा नकवी को सीमा पर जाने को कहा। शर्मा यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि राष्ट्रहित में सभी का स्वर एक होना चाहिए, जो साथ नहीं है, वह गद्दार है। इस बिंदु पर ओम थानवी की इस जिज्ञासा को चुनौती कैसे दी जा सकती है कि फिर टीवी चैनलों पर बहसें आयोजित करने का औचित्य ही क्या है? स्वतंत्र अथवा विरोध के स्वर को दबाया जाना पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत को चुनौती नहीं है? कार्यक्रम में जब व्यथित होकर सबा नकवी ने श्रीकांत शर्मा को कहा कि नुक्कड़ जैसा भाषण हमे ना पिलाएं, तो पत्रकार अर्णब गोस्वामी साथ देने के बजाय सबा पर ही पिल पड़े। कहा, ‘शर्मा हिंदी बोल रहे हैं, इसलिए आपने उन्हें नुक्कड़ का कहा? …यू लुटियंस!‘ सचमुच, अर्णब गोस्वामी की भूमिका शत-प्रतिशत जयचंद और मीरजाफर सरीखी रही। उसी कार्यक्रम में अर्णब ने अत्यंत ही सम्मानित मेहमान सुधींद्र कुलकर्णी को भी नहीं बख्शा। सुधींद्र को एक भी वाक्य पूरा करने नहीं दिया। कश्मीर समस्या पर ज्यों ही सुधींद्र ने बोलना शुरू किया, अर्णब उन पर पिल पड़े। बकौल ओम थानवी अर्णब पहले से लिखी इबारत हाथ में ले कुलकर्णी को चुप करा रहे थे। एक मुकाम पर पहुंच सुधींद्र झल्ला गए, बोले- ‘‘मैंने आपसे बदतरीन एंकर पहले कभी नहीं देखा।’’ बेशर्म अर्णब कोई जवाब नहीं दे पाए।
ओम थानवी की पीड़ा वस्तुत: उन सभी पत्रकारों की पीड़ा है, जो दवाब और प्रलोभन से दूर ईमानदार, निष्पक्ष, निडर पत्रकारिता को राष्ट्रहित में जीवित रखने को प्रतिबद्ध हैं। अल्पसंख्या में होने के बावजूद इनकी आवाज को दबाना संभव नहीं। इन्हें स्रोत व संसाधनों से वंचित कर दिए जाने के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, किंतु इतिहास साक्षी है कि विरोध के स्वर को दबाने की कोशिशों को लोकतंत्र ने हमेशा विफल किया है। पत्रकारीय मूल्य व सिद्धांत के पोषक निर्भीक, निडर, निष्पक्ष पत्रकार आश्वस्त रहें। अंतिम विजय उन्हीं की होगी। भारत में लोकतंत्र कभी पराजित नहीं हो सकता। लोकतंत्र विरोधी निज स्वार्थ के पोषकों की सेना के मुकाबले ईमानदारों के लिए देश की जनता सुरक्षा कवच बन सामने आती रही है।