नौंवी या दसवीं में बिहार बोर्ड में मशहूर कथाकार यशपाल की एक कहानी हमारे कोर्स में पढ़ाई जाती थी – अखबार में नाम – बड़ी शिद्दत से एक ऐसे व्यक्ति को यशपाल ने उकेरा था जो किसी भी हाल में अपना नाम छपवा लेना चाहता है। उसे ऐसा लगता है कि अगर अखबार में नाम नहीं छपा तो उसका जीवन व्यर्थ है, वह बोरी से सड़क पर गिरे उन हजारों दानों की तरह है जिसका कोई वजूद नहीं। लगता है यशपाल ने ६०-७- या अस्सी के दशक के लिए नहीं बल्कि २१वीं सदी के इस इंटरनेट युग के लिए ही लिखी थी। अब जबकि अखबार के साथ साथ टेलीविजन और सोशल मीडिया इतना जबरदस्त माध्यम है कि आप पलक झपकते फलक पर छा जाते हैं तो हर कोई अब यशपाल के किरदार गुरदास की तरह ख्वाब देखने लगा है।
टीवी न्यूज अपनी टीआरपी के िलए जिस तरीके के हरकत करता है ठीक उसी तरह अब देश में क्या जवान, क्या बूढ़े, क्या मर्द, क्या औरत सभी अपनी टीआरपी के िलए कुछ भी कर गुजरने से नहीं चूकना चाहते। और हो भी क्यों नहीं, जब देश ने देख लिया हो कि एक व्यक्ति गैरजिम्मेदाराना बयान देकर, बेईमानों का पुलिंदा लेकर , अपनों को लात मारकर , बेशर्मी से बार बार झूठ बोलकर सिर्फ मीडिया के सहारे किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री बन सकता है तो जाहिर है कि ख्वाब तो जागेंगे ही। हाल के वर्षों में टीवी न्यूज चैनलों से इस देश का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है। अपनी खोई साख पाने की फिराक में एक ऐसा रास्ता पकड़ा जहां से उसका लौटना मुश्किल हो रहा है । सांप-नाग-बिच्छू जैसे जानवरों से छुटकारा पाने के चक्कर में टीवी न्यूज खबरों की ओर लौटा, अन्ना के आंदोलन से। लेकिन आंदोलन के बुरे हश्र के साथ ही खबरों की दुनिया का बुरा दौर आ गया। हर छोटी बड़ी घटनाएं बेवजह तूल दी जाने लगीं। सब टीवी चैनल अपने अपने एजेंडे में लग गए और खबरों से उसका सरोकार जाता रहा । साथ ही इस बीच जो सबसे बुरा हुआ वो यह कि समाज में यशपाल का किरदार गुरदास की तादाद बेतहाशा बढ़ गई। एक तरफ जहां अपने कौम की कर्मी की मौत पर हास्यास्पद प्रेस कांफ्रेंस करके राखी सावंत पब्लिसिटी पाना चाहती है वहीं, विमान में सफर के दौरान किसी सहयात्री से छू भर जाने से कलयुगी कन्हैया बावेला मचाकर देश का ध्यान अपनी ओर खींचता है। इन दोनंों को मालूम है कि मीडिया में चर्चा होगी और हमें चाहने वाले हम पर हुए हमले और हमारे दर्द को दिखाएंगे ( जबरन) और विरोधी हमारे इस कृत्य को पब्लिसिटी स्टंट मानकर ही लेकिन चर्चा करेंगे जरुर। ठीक इसी तरह की एक नई प्राणी हैं मोहतरमा तृप्ति देसाई, हर हाल में इनको गुरदास बनना है, चाहे शनि मंदिर पर महिलाओँ का तेल चढ़ाना हो चाहे दरगाह में मौलवियों को पानी पिलाना। इन्होंने भी टीवी चैनलों की नब्ज पकड़ ली है, अपने चार-पांच पालतू मुस्टंडों के सहारे यह विवेकानंद से लेकर राजाराममोहन राय सब बन जाना चाहती हैं और यह सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि मीडिया इनको तवज्जो दे रहा है। टीआरपी के इन ड्रामों के बीच देश असल मुद्दों से बार-बार भटक रहा है। भविष्य की चिंता में वक्त देना इनको व्यर्थ ही लगता होगा। तरह तरह की आजादी के नारे लगाने वाले कन्हैया से ये न हुआ कि अपने दोस्तों के साथ (जो पाकिस्तान परस्त ज्यादा हैं) थोड़ा पसीना लातूर में भी बहा आएँ। हां भाषण देने के लिए पुणे की हवाई यात्रा जरुर करेंगे। न तृप्ति देसाई से हुआ कि अपने मुस्टंडों की ब्रिगेड के साथ महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों में एक कुआं ही खोद डालें लेकिन उनको तो शनि मंदिर पर तेल चढ़ाना है। बस हर हाल में मीडिया में बने रहना है। और मीडिया तो बस बेबस है ऐसी खबरों के लिए ।
लेकिन आप अगर आपने यशपाल की कहानी पढ़ी हो तो याद होगा कि अखबार में नाम छपवाने के धुन में खोए गुरदास बेचारे के साथ बुरा हो जाता है, मोटर कार के नीचे भी आ जाता है और अखबार में नाम भी नहीं छपता। और अपनी हरकत से शर्मसार होकर उसी अखबार से उसे अपना मुंह छुपाना पड़ता है। जबतक मीडिया ऐसी खबरें दिखाना बंद नहीं करेगा तब तक हमारे देश में राखी सावंत, कन्हैया कुमार और तृप्ति देसाई की शक्ल में गुरदास पैदा होते रहेंगे और अरविंद केजरीवाल से शुरु हुआ यह सफर न जाने कहां जाकर रुकेगा ।