यह सुप्रीम कोर्ट, पटना हाई कोर्ट और बिहार सरकार- तीनों के लिए आत्म-चिंतन करने का मसला है और उन करोड़ों आम लोगों के लिए तो किसी सदमे से कम नहीं, जो इंसाफ़ के लिए सरकारों और अदालतों पर भरोसा रखते हैं। अगर किसी अपराधी से डरकर एक जज को तबादला लेना पड़ जाए, तो यह सिर्फ़ राज्य के लॉ एंड ऑर्डर पर ही सवाल नहीं, बल्कि हमारी न्याय-व्यवस्था और उस न्यायालय एवं न्यायाधीश पर भी बड़ा-सा प्रश्नचिह्न है, जिसने अपराधी को खुला छोड़ दिया।
बात शहाबुद्दीन की हो रही है। जिस व्यक्ति पर इतने मुकदमे हों कि लोगों की स्मरण-शक्ति जवाब दे जाए, जिसपर आए दिन हत्याओं समेत गंभीर अपराधों के इल्ज़ाम लगते ही रहते हों, जिसके शिकार लोगों में नेता, पत्रकार, पुलिस, व्यापारी, छात्र सभी बताए जाते हों, जिसके घर पुलिसकर्मी छापा मारने जाएं तो उनकी लाशें लौटें, जिसे निचली अदालत एक दोहरे हत्याकांड में उम्रकैद की सज़ा सुना भी चुकी हो, जो जेल में बंद रहकर भी दरबार लगा लेता हो, जिसे कुछ ही महीने पहले सरकार और प्रशासन ने सिवान की जेल तक में रखना ख़तरे से ख़ाली नहीं समझा और भागलपुर जेल भेज दिया… उसी शख्स को पटना हाई कोर्ट ने वापस सिवान में खुला घूमने का लाइसेंस दे दिया?
अगर शहाबुद्दीन कोई शरीफ़ आदमी होता और उसकी ज़मानत से किसी को ख़तरा नहीं होता, तो सिवान के अतिरिक्त ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश अजय कुमार श्रीवास्तव को पटना हाई कोर्ट से तबादले की गुहार क्यों लगानी पड़ती? मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, शहाबुद्दीन को ज़मानत दिये जाने के हाई कोर्ट के फ़ैसले के फौरन बाद उन्होंने अपना तबादला किये जाने की गुहार लगाई, जिसके बाद उन्हें पटना भेज दिया गया है। अगर यह सच है कि शहाबुद्दीन की रिहाई के चलते ही उन्हें ट्रांसफर लेना पड़ा, तो ज़ाहिर है कि उसे ज़मानत दिये जाने का फ़ैसला न्याय के लिए बहुत बुरा साबित हुआ।
सत्तारूढ़ जनता दल यूनाइटेड यानी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के एक प्रवक्ता के मुताबिक, राज्य सरकार इस वक्त जज अजय कुमार श्रीवास्तव समेत उन 20 लोगों को सुरक्षा मुहैया करा रही है, जिन्हें शहाबुद्दीन से ख़तरा हो सकता है। मेरा सवाल है कि जिस व्यक्ति के डर से बीस-बीस लोगों को सुरक्षा देने की नौबत आ गई, वह व्यक्ति स्वयं खुला घूमने का अधिकारी कैसे हो सकता है?
शहाबुद्दीन की ज़मानत रद्द हो कि नहीं, इस पर सुप्रीम कोर्ट को अभी फ़ैसला लेना है। देश का एक ज़िम्मेदार और कानून मानने वाला नागरिक होने के नाते आम तौर पर हम न्यायाधीन मामलों में टीका-टिप्पणी नहीं करते, न ही न्यायपालिका या न्यायाधीशों पर सवाल खड़े करते हैं, लेकिन शहाबुद्दीन मामले में हमारा विवेक हमें चुप रहने की इजाज़त नहीं देता। इसलिए कहूंगा कि उसकी रिहाई राज्य सरकार और न्याय के दुश्मनों के नेक्सस के बिना संभव नहीं थी। साथ ही, दोनों में से किसी एक जज ने ग़लती ज़रूर की। या तो सिवान के एडीजे अजय कुमार श्रीवास्तव ग़लत थे, जिन्होंने शहाबुद्दीन को दोहरे हत्याकांड में उम्रकैद की सज़ा सुनाई, या फिर पटना हाई कोर्ट के जज जितेंद्र मोहन शर्मा ग़लत हैं, जिन्होंने उसी दोहरे हत्याकांड के गवाह की हत्या मामले में ज़मानत देकर उसकी रिहाई का रास्ता प्रशस्त किया।
कानून से मेरी अपेक्षा है कि न्याय का माथा कभी झुकने नहीं पाए। इसके लिए जजों को भी जवाबदेह बनाया जाए और उनके ग़लत-सही फ़ैसलों का भी इंसाफ़ हो। यह नहीं होना चाहिए कि कोई जज ग़लत फ़ैसला देकर भी न्यायमूर्ति कहलाता रहे। उसका भी ट्रायल हो और दोषी पाए जाने पर उसे भी सज़ा मिले, क्योंकि एक ग़लत फ़ैसला न सिर्फ़ कई लोगों का जीवन तबाह कर सकता है, बल्कि समाज में असंतोष का वातावरण और न्याय-व्यवस्था के प्रति लोगों में अनास्था भी पैदा कर सकता है।